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अनेकान्त/54/3-4
परमात्मा होने का उपाय, प्रक्रिया :
आत्मा का मोह क्षोभ रहित शुद्धज्ञायक भाव ही धर्म है और धर्म स्वरूप परिणत आत्मा ही परमात्मा है। शुद्धज्ञायक भाव में कैसे प्रवृत्ति हो, इसका आध्यात्मिक एवं प्रायोगिक निरूपण कवि ने मेरी भावना के पद्य 9, 10 एवं 11 में किया है। इस सम्बन्ध में निम्न पंक्तियाँ मननीय हैं :पद्य-9 : "घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत-दुष्कर हो जावे
ज्ञान-चरित्र उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावे" पद्य-10 : "परम-अहिंसा-धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे" पद्य-11 : "फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे
वस्त-स्वरूप-विचार खुशी से, सब दुख संकट सहा करे" उक्त पंक्तियों के रेखांकित बिन्दुओं पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि मोह रूप आत्म-अज्ञान ही दुख-स्वरूप और दुख का कारण है। मोह का क्षय बारम्बार वस्तु-स्वरूप के विचार एवं भावना से होता है। उससे आत्मा में परमात्मा का अनुभव होता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में आस्तिक्य बोध के कारण जगत के जीवों के प्रति मैत्रीभाव और करुणा सहज ही उत्पन्न होती है। मोह नाश से ज्ञान-स्वरूप आत्मा का ज्ञान होता है फिर ज्ञान में स्थिरता रूप चारित्र प्रकट होने लगता है जिससे वासना जन्य दुष्कृत्य स्वतः दुष्कर (कठिन) हो जाते हैं। मनुज जन्म की सफलता आत्मा के ज्ञान एवं चारित्र की उन्नति में है। ऐसा परम-अहिंसक साधक जगत के जीवों का हित करता है।
मोहमार्ग में वस्तु-स्वरूप के विचार की महिमा पं. बनारसीदास ने समयसार नाटक में निम्न रूप से व्यक्त की है
"वस्तु-विचारत ध्यानतें मन पावे विश्राम रस स्वादत सुख ऊपजे अनुभव याको नाम अनुभव चिंतामणिरतन, अनुभव है रसकूप
अनुभव मारग मोक्ष का, अनुभव मोक्ष स्वरूप" स्व-पर कल्याण कारक आदर्श नागरिक संहिता :
मेरी भावना में पद तीन के उत्तरार्द्ध से पद 8 तक मानव व्यवहार की