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अनेकान्त/54/3-4
अर्थ को अन्तरंग में देखते हैं उनके लिए व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता।
जयचन्द जी का विचार है कि "यदि कोई व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ जान कर छोड़ दे तो शुभोपयोग व्यवहार को छोड़ दे और चूंकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति प्राप्ति नहीं हुई इसलिए उल्टा अशुभयोग में ही आकर भ्रष्ट हुआ यथा कचिद् स्वेच्छा रूप प्रवृत्ति करेगा तब नरकादि कर परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा।"
ज्ञानसागर जी ने समयसार की टीका में व्यवहार को असत्यार्थ तो कहा परन्तु इस तरमीम के साथ कि यहाँ असत्यार्थ का अर्थ ईषत् सत्य लेना . चाहिए। उन्होंने यह भी बतलाया कि भूत का एक अर्थ 'सम' भी होता है। अतः भूत का अर्थ सामान्य धर्म को बताने वाला होता है और फिर व्यवहार अभूतार्थ का अर्थ होगा व्यवहार पर्यायार्थिक नय याने विशेषता को बताने वाला।
क्या अमृतचन्द्र, क्या जयसेन, क्या ज्ञानसागर और क्या अन्यों ने जो सर्वोच्च कोटि के दार्शनिक थे फिर भी सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहा कि दोनों ही नय भृतार्थ हैं। मुझे लगता है कि किसी समय किसी लिपिकार ने अपनी अकल लगाकर-"ववहारो भूदत्थो" को "ववहारो ऽ भूदत्थो" लिख दिया। संस्कृत छायाकारों ने इसे ही सही माना और परवर्ती विद्वान भी यह साबित करने की कोशिश में लगे रहे कि व्यवहार नय सिक्का तो है, मगर खोटा। कटारिया संस्करण ने परम्परा पर पुनर्चिन्तन की आवश्यकता जताई है। आशा करनी चाहिए कि वर्तमान श्रुतज्ञ विद्वान् इस विषय पर व्यापक रूप से गौर करेंगे और श्रुत के उपासकों का सही मार्ग दर्शन करेंगे।
एक रोचक बात यह भी दिखाई पड़ती है कि सीधी सादी बात का आगम के जानकार लोग किस प्रकार विभिन्न अर्थ करते हैं। एक गाथा है
मोत्तूण णिच्छयट्ठ ववहारे ण विदुसा पवट्ठति। परमट्ठ मस्सिदाणं दु जदीण कम्मक्खओ होदि।।