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________________ 10 अनेकान्त/54/3-4 अविच्छिन्न धारा में बाधा डालना प्रारम्भ किया, तब उपर्युक्त टीकाओं और मूलग्रन्थों के अनन्त गहन अर्थों के हृदयंगम करके आचार्य वीरसेन स्वामी (नवीं शती का पूर्वार्ध), तथा आचार्य जिनसेन (नवीं शती) ने "मणिप्रवाल-न्याय" से प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में साठ हजार श्लोक प्रमाण "जयधवला" नामक विशाल टीका की सरल भाषा में रचना करके महान् आगम ज्ञान की परम्परा को सुरक्षित करके अपने को अमर और भावी पीढ़ी द्वारा सदा के लिए श्रद्धा का पात्र बना लिया। जयधवला टीका "मूलग्रन्थ" कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों पर लिखी गई है। इसमें बीस हजार श्लोक प्रमाण प्रारम्भिक भाग की रचना आचार्य वीरसेन स्वामी ने की तथा इनके स्वर्गवास के बाद शेष भाग की रचना इनके सुयोग्य शिष्य "जिनसेनाचार्य' ने की। इस समय यह जयधवला टीका सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द शास्त्री और सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द शास्त्री के संयुक्त सम्पादकत्व में हिन्दी अनुवाद तथा विशेष विवेचन के साथ भा. दिगम्बर जैन संघ, मथुरा से 16 खण्डों में प्रकाशित है। जयधवला टीका की उपयोगिता और प्रसिद्धि इतनी अधिक है कि मूलग्रन्थ तक को "जयध वलसिद्धान्त ग्रन्थ" नाम से अभिहित करते हुए प्रायः देखा जाता है। जयधवला टीका व्याख्यान शैली में लिखित साठ हजार श्लोक प्रमाण है। जयधवलाकार द्वारा प्रस्तुत विषय वर्णन की प्राञ्जलता, युक्तिवादिता तथा अपने या अन्य आचार्यो के मत को प्रस्तुत करने की दृढ़ता-इस टीका की प्रमुख विशेषता है। रूपक और दृष्टान्त जैसा कि मूलग्रन्थ कसायपाहुड और इसकी जयधवला टीका के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें पेज्जदोष (पेज्ज-प्रेय-राग, दोष-द्वेष) तथा कषाय की बन्ध, उदय, सत्त्व आदि विविध दशाओं के द्वारा कषायों का विस्तृत-व्याख्यान किया गया है। इसके पन्द्रह अधिकारों में से प्रारम्भ के आठ अधिकारों में संसार के कारणभूत मोहनीय कर्म की विविध दशाओं का तथा अन्तिम सात अधिकारों में आत्म परिणामों के विकास से शिथिल होते हुए मोहनीय कर्म की
SR No.538054
Book TitleAnekant 2001 Book 54 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2001
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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