________________
अनेकान्त/54-2
कालान्तर में यही वज्रजंघ हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार हुआ। यह उस समय के करीब की बात है कि जब भगवान ऋषभदेव ने देखा
अहो भग्ना महावंशा नव संयता। सन्मार्गस्यापरिज्ञानात् सद्योऽमीभिः परीषहैः॥ मार्गप्रबोधनार्थञ्च मुक्तेश्च सुखसिद्धये। कायस्थित्यर्थमाहारं दर्शयामस्ततोऽधुना। 20/3-4
बड़े बड़े वंशों में उत्पन्न हुए नवदीक्षित साधु सन्मार्ग का परिज्ञान न होने के कारण क्षुधादि परिषहों के कारण शीघ्र ही पथच्युत हो गए इसलिए अब मोक्ष का मार्ग बतलाने के लिए और मुक्ति की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए शरीर की स्थिति के अर्थ आहार लेने की विधि दिखाऊंगा।
फिर इस उद्देश्य से वे जंगल से बस्ती की ओर आए, तो कई लोगों ने तरह-तरह के तरीकों से भगवान् को भोजन के लिए निमंत्रित किया परन्तु विधि पूर्वक आहार न मिलने से भगवान् ने आहार नहीं लिया। तभी श्रेयांस कुमार को जाति-स्मरण हुआ और
श्रद्धागुणसम्पन्नः पुण्यैः नवभिरन्वितः। प्रादाद्भगवते दानं श्रेयान्दानादि तीर्थकृत्॥ प्रतिग्रहणमुच्चैः स्थानेऽस्य निवेशनम्। पादप्रधावनञ्चार्चा नति: शुद्धश्च सा त्रयी। विशुद्धिश्चाशनस्येति नव पुण्यानि दानिनाम्। स तानि कुशलो भेजे पूर्वसंस्कारचोदितः। 20/81,86,87
दानादि तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले श्रेयांस कुमार ने श्रद्धा आदि गुणों सहित नवपुण्यों से सहित भगवान् को (इक्षु के रस का) दान किया। चतुर श्रेयांस कुमार ने पूर्व संस्कार से प्रेरित होकर दानियों के जिन नव पुण्यों का पालन किया था वे नव पुण्य (नवधा भक्ति) इस प्रकार हैं
पड़गाहन', उच्चस्थान देना, चरण धोना', अर्चना', नमस्कार, मन, वचन', काय और भोजन' की शुद्धियां। यहां पर पूजा शब्द का प्रयोग ही नहीं किया गया है। (बरबस मेरा ध्यान जाता है श्रीमद्भागवत 7/5/23 के