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अनेकान्त/54-2
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आर्यिकाएं और नवधा भक्ति *
जस्टिस एम. एल. जैन
जैन गजट 19 अक्टूबर 2000 में छपे श्री बेनाड़ा व सेठिया के पत्र पढ़कर लगा कि जब दो आगम धुरन्धर आपस में टकरा जाएं तो जैसा सम्पादक जी का ख्याल है नतीजा निकाल पाना मुश्किल काम है खासकर हमारे जैसे अल्पश्रुतों के लिए इस बात पर कि आहार देने के पहले आर्यिकाओं की मुनियों की भांति अष्ट द्रव्य से पूजा करना सही है या गलत। साथ ही यह भी लगा कि पुरातन परिपाटी के बारे में महत्वहीन विवाद छेड़कर आखिर क्या हासिल किया जा रहा है। भला क्या यह भी विवाद का विषय है कि साध्वियों का सत्कार उस प्रकार नहीं होना चाहिए जिस प्रकार साधुओं का होता है और वह भी महिला आजादी के इस जमाने में। क्या ही अच्छा होता यदि परम विदुषी साध्वी ज्ञानमती जी की इस विषय पर व्यवस्था ले ली जाती और उसे सब मान्य कर लेते परन्तु शायद पुरुष साधुओं के भक्त समूह को यह बात मंजूर न हो कि महिला साधु कोई व्यवस्था देने की अधिकारी है। मैं तो ज्यादह हैरान हूं इस बात से कि हमारे समाज की जागरुक महिलाएं जैन साहित्य में भरे घोर नारी निंदा, मुक्ति निषेध यहां तक कि ध्यान निषेध तक को क्यों कर सहन कर रही हैं और अब तो 'स्वाध्यायी विद्वान' बेनाड़ा जी ने जैन वाङ्मय के निष्णात प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जी सम्पादक जैन गजट के 'दो शब्द' में आर्यिका सुपार्श्वमती जी के समर्थन के साथ इस विषय पर एक ट्रेक्ट निकालकर साध्वियों के लिए प्रचलित आहार विधि के खिलाफ ही नहीं बल्कि उनके दर्जे के बारे में भी संघर्ष ही छेड़ दिया है। उनके विचारों का निचोड़ है - आर्यिका, आर्यिका है मुनि नहीं जिनको वे
* नवधाभक्ति विषयक मतवैभिन्य समाज में व्यर्थ का विवाद उत्पन्न कर रहा है। एतद्विषयक एक आलेख हमने पहले छापा था । उससे भिन्न मान्यता वाला यह लेख छापकर हम इस विवाद को विराम दे रहे हैं। समाज में/साधु संघों में जहां जो मान्यता प्रचलित है, उसमें विसंवाद उचित नहीं है।
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