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अनेकान्त/54-2
मिथिला के प्राय: सभी विद्वान् अयाची मिश्र का नाम बहुत गर्व से लेते हैं और उनकी विद्वत्ता तथा निस्पृहता की प्रशंसा करते नहीं थकते। उनका वास्तविक नाम पं. जयदेव मिश्र था। एक दिन से अधिक के लिए भोजन सामग्री का संग्रह न करना उनका नियम था एवं कभी किसी से याचना न करना उनका व्रत था। अपने इस व्रत के कारण ही वे अयाची मिश्र के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। शास्त्रों का अध्ययन करने अथवा शास्त्र सम्बन्धी गुत्थियों के सुलझाने के लिए उनके यहां विद्यार्थियों और विद्वानों का तांता लगा रहता था। मिश्रजी अपने नित्य कर्म पूजा-पाठ आदि से निवृत्त होकर अपनी कुटिया में आसन पर बैठ जाते और आने वाले विद्यार्थियों तथा जिज्ञासुओं को क्रमशः पढ़ाते और उनकी शंकाएं दूर करते। विद्यार्थी और विद्वान् जिज्ञासु आते और पीछे बैठ जाते। जब पूर्व आगत जिज्ञासु उठकर चले जाते, तब पीछे वाले आगे बढ़कर मिश्रजी के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट करते। यही वहां की परम्परा थी। __ मिश्रजी की विद्वत्ता और अकिंचनता की ख्याति सर्वत्र प्रदेश में हो गयी थी। उस क्षेत्र के राजा के पास भी उनकी ख्याति पहुंची। राजा ने सोचा कि मेरे राज्य में इतना बड़ा विद्वान् गरीब रहे, यह मेरे लिए लज्जा की बात है। वह अपने महल से निकलकर मिश्रजी की कुटिया पर पहुंचा। वहां अनेक जिज्ञासु पहले से बैठे थे। वह भी प्रणाम करके सबसे पीछे बड़ी शालीनता के साथ बैठ गया। एक-एक करके जब आगे के लोग अध्ययन करके उठ गये, तब राजा ने आगे बढ़ कर पुनः पंडितजी को प्रणाम किया। मिश्रजी ने उससे पूछा-बोलो, तुम्हारी क्या समस्या है? राजा ने अपना परिचय देकर कहा कि मैंने आपकी विद्वत्ता और गरीबी दोनों के विषय में सुना है, मैं आपकी सेवा के लिए कुछ अन्न और कुछ ध न-सम्पत्ति लाया था, आप स्वीकृति दें तो मैं बाहर से उठवाकर रखवा दूं।
पं. जयदेव मिश्रजी ने अपनी पत्नी को आवाज लगायी और उसके आने पर उससे भण्डार का हाल पूछा। पंडितानी ने सन्तोष की मुद्रा में उत्तर दिया कि आज के लिए भरपूर सामान एक शिष्य घर में पहुंचा गया है। पंडितानी का उत्तर सुनकर मिश्रजी ने राजा से बहुत आदरपूर्वक कहा-महाराज! घर में सब कुछ है, आप किसी गरीब को यह दान देने की कृपा करें। राजा ने बहुत आग्रह किया कि कल के लिए या आगे के
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