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अनेकान्त / 54-2
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अपरिग्रह से द्वन्द्वविसर्जन : समतावादी समाज - रचना डॉ. सुषमा अरोरा
विज्ञान के उत्तरोत्तर विकास के साथ यह विश्व चाहे जितना छोटा होता जा रहा हो, उसमें एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचने की समय की दूसरी चाहे कितनी संकुचित होती जा रही हो, किन्तु उसकी परिवार जैसी छोटी और राष्ट्र जैसी बड़ी इकाइयों के बीच भी संघर्ष और अशान्ति के बादल घुमड़ रहे हैं। राष्ट्र रूपी इकाइयों के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी विशालतम संस्थाएं भी निरन्तर असफल हो रही हैं। नगर, ग्राम और परिवार आदि छोटी इकाइयों के बीच भी संघर्ष और अशान्ति का जो तूफान उठता है, उसे ग्राम, नगर, प्रदेश अथवा राष्ट्र की न्यायपालिकाएं शान्त नहीं कर पातीं, अपितु अशान्ति के झंझावात से वे स्वयं भी अतिशय भाराक्रान्त होकर अपनी असमर्थता को स्वीकार करने लगीं हैं। वर्तमान शताब्दी के समाजशास्त्री इस संघर्ष और अशान्ति के समाधान करने का अथक प्रयास करके भी असफल हो रहे हैं और उनके द्वारा स्थापित समाजवाद के आदर्श को अपनाकर चलने वाली बड़ी-बड़ी इकाईयां निरन्तर बिखर रही हैं। सोवियत रूस का विघटन इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
भारत के प्राचीन मनीषियों ने उत्कट साधना से प्रसूत विवेक (ऋतम्भरा प्रज्ञा- योगज ज्ञान) के द्वारा सुदूर भविष्य में उठने वाली इन समस्याओं को पहचाना था और मानव समाज को उनसे सुरक्षित बनाये रखने के लिए कुछ उपाय प्रस्तुत किये थे। उनके अनुसार समाज की समस्त समस्याओं का कारण लोभ, मोह आदि मानस विकार होते हैं। इन मनोविकारों का कारण प्रेममय वातावरण में जीने वाला मधुर मानव हिंसक और क्रूर हो उठता है।' वह सरल और सहज जीवन जीना छोड़कर दल-प्रपंच को अपना लेता है । सन्तोषपूर्ण तृप्त जीवन के स्थान पर अनन्त लालसाओ, कामनाओं से ग्रस्त होकर भटकने लग जाता है। प्राचीन भारत के प्रायः सभी सम्प्रदायों के मनीषियों ने विद्वेष और अशान्ति के इस मूल को समान