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अनेकान्त/54-2 SSSSSSSssccccccccccer द्वारा विचार करता है। परम दयालु और राग-द्वेष से रहित सर्वज्ञदेव ने जिस रूप में इन्हें कहा है वे उसी रूप में हैं। इस
प्रकार के चिन्तन को आज्ञा विचय धर्मध्यान कहते हैं। 2. अपाय विचय-तीर्थंकर पद को देने वाले दर्शन विशुद्धि आदि
द्वारा कथित उपदेश के अनुसार करता है अथवा जीवों के शुभ और अशुभ कर्म विषयक अपायों का विचार करता है। इसका अभिप्राय है कि जीव शुभ और अशुभ कर्मो से कैसे छूटे इस
प्रकार का सतत चिन्तन अपाय विचय है। 3. विपाक विचय-कर्मो के फल, उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध
तथा मोक्ष आदि का चिन्तन करना विपाक विचय धर्म्यध्यान है।" 4. संस्थान विचय-पर्याय अर्थात् भेद सहित तथा वेत्रासन, झल्लरी
और मृदंग के समान आकार सहित ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और
मध्यलोक का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्म्यध्यान है। 4. शुक्लध्यान-जिसमें शुचि गुण का सम्बन्ध हो उसे शुक्ल कहते हैं। जिसमें अतिविशुद्ध गुण होते हैं, कर्मों का उपशम तथा क्षय होता है और शुक्ल लेश्या होती है वह शुक्लध्यान है। जब क्षपक धर्म्यध्यान को पूर्ण कर लेता है तब वह अति विशुद्ध लेश्या के साथ शुक्लध्यान को ध्याता है क्योंकि परिणामों की पंक्ति उत्तरोत्तर निर्मलता को लिये हुए हैं। अत: वह क्रम से ही होती है जिसने प्रथम सीढ़ी पर पैर नहीं रखा वह दूसरी सीढ़ी पर नहीं चढ़ सकता। अत: धर्म्यध्यान में परिपूर्ण हुआ अप्रमत्त संयमी ही शुक्लध्यान करने में समर्थ होता है।
भेद-शुक्लध्यान के चार भेद हैं-1. पृथक्त्ववितर्क 2. एकत्ववितर्क 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति 4. व्युपरतक्रियानिवर्ति।28 1. पृथक्त्ववितर्क वीचार-प्रथम शुक्लध्यान का नाम पृथक्त्व वितर्क
है क्योंकि इसमें योग परिवर्तन के साथ ध्येय का भी परिवर्तन होता रहता है इसलिए इसको पृथक्त्व कहते हैं। श्रुतज्ञान को वितर्क कहते हैं। चौदह पूर्वो का ज्ञाता साधु ही इस शुक्लध्यान को ध्याता है इसलिए इस प्रथम शुक्लध्यान को सवितर्क कहते