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________________ अनेकान्त/३१ यदि अपने से भिन्न बाह्य कारण की सहकारिता की आवश्यकता न हो तो सर्वद्रव्यों में साधारण गति, स्थिति एवं अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत धर्म, अधर्म एवं आकाश द्रव्यों की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। जबकि आकाश का कार्य अवगाहन तो प्रत्यक्षतः सिद्ध है ही। अन्य दार्शनिक भी आकाश को स्वीकार करते हैं। अतः उन्हें गति एवं स्थिति के हेतुभूत धर्म एवं अधर्म द्रव्य भी स्वीकार करना चाहिए। ___ भट् अकलंकदेव ने उन लोगों का सयुक्तिक समाधान किया है जो लोग अमूर्तिक होने से धर्म एवं अधर्म द्रव्य को गति एवं स्थिति का हेतु मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं है, जिससे कि अमूर्तिकपने के कारण गति-स्थिति का अभाव माना जा सके। जिस प्रकार अमूर्त भी आकाश सब द्रव्यों को अवकाश देने में निमित्त होता है, उसी प्रकार अमूर्त भी धर्म और अधर्म गति और स्थिति में साधारण निमित्त हो सकते हैं। इस प्रसंग में उन्होंने अन्य दार्शनिकों के मत भी रूप ने समर्थन में प्रस्तुत किये हैं। वे कहते हैं कि सांख्य मत का अमूर्त भी प्रधान तत्त्व पुरुष के भोग का निमित्त होता है, बौद्ध मत का अमूर्त भी विज्ञान नाम रूप की उत्पत्ति का कारण बन जाता है तथा मीमांसक मत का अमूर्त भी अदृष्ट पुरुष के उपभोग का कारण माना गया है, तो फिर धर्म-अधर्म को गतिस्थिति के हेतु मानने में क्या बाधा है?" यद्यपि भूमि, जल आदि भी गति में कारण देखे जाते हैं, किन्तु ये विशिष्ट कारण हैं, जबकि धर्म एवं अधर्म द्रव्य गति एवं स्थिति के साधारण कारण हैं। अतः इसमें कोई विरोध नहीं है। एक कार्य के अनेक कारण होते हैं, अतः धर्म एवं अधर्म को मानना युक्त है। __ आचार्य पूज्यपाद ने एक पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि धर्म और अधर्म द्रव्य का जो उपकार है, उसे आकाश का मान लेना उचित है, क्योंकि आकाश सर्वगत है। इसका समाधान करते हुए वे कहते हैं धर्मादिक द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का उपकार है। यदि एक द्रव्य के अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त हो जावेगा। जिस प्रकार मछली की गति जल में होती है, जल के अभाव में पृथिवी पर नहीं होती है, 10. राजवार्तिक 5/17. 12. 'भूमिजलान्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामितिचेत् ? न, साधारणाश्रय इति विशिष्टोक्तत्वात् । अनेककारण साध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य ।' - सवार्थसिद्धि, 5/17. 13. सर्वार्थसिद्धि 5/17.
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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