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________________ अनेकान्त/६१ जैसे गोपिका मक्खन निकालने के लिए मथानी की रस्सी के दोनो छोरो को पकडे रहती है, गौण-मुख्य करती है, उसी प्रकार तत्त्व-जिज्ञासु रस्सी स्थानीय प्रमाण के दोनों अश व्यवहार-निश्चय, इनमें से किसी को छोडता नहीं है, यथासमय गौण-मुख्य करता है। निश्चयाभास - जो शुद्ध अध्यात्म ग्रन्थों का पठन करके निश्चय नय के वास्तविक अर्थ को न जानता हुआ व्यवहार धर्म, शुभ प्रवृत्ति, शुभोपयोग रूप अणुव्रत-महाव्रत रूप सराग चारित्र को सर्वथा हेय मानता है, जिसने पाप क्रियाओं को अब तक छोडा नहीं है, जिसे गुणस्थान, मार्गणा-स्थान आदि विषयक करणानुयोग का ज्ञान नही है, जो शुभ को सर्वथा बन्ध का कारण मानता है तथा चारित्र एवं चारित्रधारी मनि. आर्यिका, श्रावक-श्राविकाओ की उपेक्षा करता है, जीव को सर्वथा कर्म का अकर्ता मानता है, वह निश्चयाभासी है। उसका निश्चय आभासमात्र है, वह निश्चयैकान्ती है। ____जीव को शुद्ध निश्चय नय से कर्म का अकर्ता कहा गया है एव शुभ भाव को भी हेय कहा गया है। उसी कथन को सम्पूर्ण सत्य मानकर वैसा ही निरूपण करता है। द्रव्य को सर्वथा शुद्ध मानता है परन्तु आप साक्षात् रागी हो रहा है। उस विकार को पर (अन्य) मानकर उससे बचने का उपाय नही करता। यद्यपि अशुद्ध है तथापि भ्रम से अपने को शुद्ध मानकर एक उसी शुद्ध आत्मा का चिन्तन करता है। द्रव्य से पर्याय को सर्वथा भिन्न मानकर, अस्पृष्ट मानकर सन्तुष्ट हो जाता है, जबकि द्रव्य से पर्याय तन्मय है। वह रागादिक विकार को पर्याय मात्र में मानता है, विकारों का आधार पर्याय ही मानता है। इस मान्यता का जीव दही-गुड खाकर प्रभावी हुए के समान आत्मस्वरूप से च्युत बहिरात्मा है। निश्चयैकान्ती एक ज्ञान मात्र को ही वास्तविक मोक्षमार्ग मानता है तथा चारित्र तो स्वत: हो जायेगा, ऐसा जानकर चारित्र और तप हेतु
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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