________________
अनेकान्त/२५
मारना, बांधना, अंग छेदना, धन का अपहरण करना आदि कार्यो को कैसे किया जावे-इस प्रकार मन से विचारना अपध्यान है। स्वामी कार्तिकेय ने परदोषों के ग्रहण, परसम्पत्ति की चाह, परस्त्री के समीक्षण तथा परकलह के दर्शन को अपध्यान नामक अनर्थदण्ड कहा है। चारित्रसार में तो सीधे-सीधे आर्त एवं रौद्रध्यानों को अपध्यान कहा गया है।२२ पण्डितप्रवर श्री आशाधर जी ने भी अपध्यान को आर्त एवं रौद्र ध्यानरूप स्वीकार किया है। अमृतचन्द्राचार्य का कहना है कि शिकार, जय-पराजय, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी आदि का चिन्तन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका फल केवल पापबन्ध है। २३
४. दु:श्रुति : दु.श्रुति को अशुभश्रुति नाम से भी उल्लिखित किया गया है। श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र नामक ग्रन्थ में अनर्थदण्ड के चार ही भेद किये हैं। उन्होंने दुःश्रुति को पृथक् भेद नहीं माना है। समन्तभद्राचार्य के अनुसार आरम्भ, परिग्रह, दु.साहस, मिथ्यात्व, राग-द्वेष, गर्व, कामवासना आदि से चित्त को क्लेशित करने वाले शास्त्रों के सुनने- पढने को दु.श्रुति नामक अनर्थदण्ड कहा है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-'हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्याप्तिरशुभश्रुति ।' अर्थात् हिंसा और राग आदि को बढाने वाली दूषित कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षादेना अशुभश्रुति (दुःश्रुति) नाम का अनर्थदण्ड है ।२५ अमृतचन्द्राचार्य का कहना है कि राग-द्वेष आदि विभावों को बढाने वाली, अज्ञानभाव से परिपूर्ण दूषित कथाओं को सुनना, बनाना या सीखना दु.श्रुति अनर्थदण्ड है। इन्हें कभी भी नहीं करना चाहिए।२६ कार्तिकेय स्वामी के अनुसार जिन ग्रन्थों में गन्दे मजाक, वशीकरण, काम-भोग आदि का वर्णन हो, उनको सुनना तथा परदोषों की चर्चा सुनना दु.श्रुति नामक अनर्थदण्ड है।२७ पं आशाधर जी का कथन है कि जिन शास्त्रों में काम, हिंसा आदि का वर्णन है, उनके सुनने से हृदय राग-द्वेष से कलुषित हो जाता है, उनके सुनने को दु.श्रुति कहते हैं। उन्हें नहीं सुनना चाहिए ।२८