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________________ सम्पादकीय भगवान महावीर और उनकी प्रासंगिकता जैन परम्परा में तीर्थकरों का सर्वातिशायी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि महामन्त्र ‘णमोकार' में सिद्धों के भी पूर्व अरिहन्तों-तीर्थकर भगवन्तों को नमस्कार किया गया है। तीर्थकर शब्द तीर्थ उपपद कृ धातु से अप् प्रत्यय का निष्पन्न रूप है। तीर्थ शब्द तु धातु से थक् प्रत्यय करने पर बना है। इस प्रकार तीर्थकर का अर्थ हुआ-वह महापुरुष जो तीर्थ-धर्म का प्रचार करे। कोई भी तीर्थकर किसी नवीन धर्म या सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं करता है, अपितु वह धर्म का स्वयं साक्षात्कार करके लोककल्याणार्थ उसकी पुन: व्याख्या करता है, सुप्त मानवता को जगाता है तथा मानव मात्र को पापादिक से पार होने का मार्ग बताता है, संसार सागर से सतरण का उपाय दर्शाता है। तीर्थ शब्द का शाब्दिक अर्थ पुल और घाट है तथा लाक्षणिक अर्थ धर्म है। नदी को पार करने के लिए जो उपयोगिता पुल और घाट की होती है, संसारमहार्णव को पार करने के लिए वही उपयोगिता धर्म की है। धर्म के साक्षात् उपदेष्टा तीर्थकर होते हैं, अत. उनका स्थान सर्वोपरि है। भारत वसुन्धरा पर वर्तमान अवसर्पिणी काल में आद्य तीर्थकर नाभिपत्र ऋषभदेव हो। वेदों और अनेक वैदिक पुराणों में उनका प्रशस्य पुरुष के रूप में तथा अष्टम अवतार के रूप में उल्लेख हुआ है। वर्तमान जैनतीर्थ भगवान् महावीर की स्मरणीय देन है, जो तीर्थंकर परम्परा की अन्तिम कडी के रूप में चौबीसवें तीर्थकर हये हैं। इस अध्यात्मसूर्य का उदय आज से लगभग २६०० वर्ष पूर्व वैशाली गणतन्त्र के क्षत्रिय कुण्डग्राम में हुआ था। उनके पिता वैशाली गणतन्त्र के उपनगर कुण्ड ग्राम के
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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