SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-परम्परा में सृष्टि-संरचना -डॉ. कमलेश कुमार जैन जैनदर्शन में छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें से आकाश दो भागों में विभक्त है-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश में आकाश के अतिरिक्त अन्य पाँच द्रव्य भी ठसाठस भरे हुये हैं और अलोकाकाश में केवल आकाश ही आकाश है। लोकाकाश या लोक को ही जैन-परम्परा में सृष्टि के रूप में स्वीकार किया गया है, अर्थात् उपर्युक्त छह द्रव्यों से लोक या सृष्टि का निर्माण हुआ है। इन छहों द्रव्यों को दो भागों में विभक्त करने पर जीव और पुद्गल-ये दो मूल द्रव्य ही शेष रहते हैं। चेतना-युक्त जीव के अतिरिक्त संसार में जो भी दिखलाई दे रहा है, वह सब अजीब या पुदगल है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चारों भी वस्तुतः पुद्गल की पर्यायें हैं। अतः जैनेत्तर भारतीय दर्शनों में जो जड़ और चेतन की बात कही गई है, वही अपने कुछ वैशिष्ट्य के साथ जैनदर्शन में भी स्वीकत है। जिसमें ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग (अर्थात् हलन-चलन रूप आत्मा) पाया जाये वह जीव है। इसका कार्य परस्पर एक-दूसरे का उपकार करना है। जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप पाया जाये वह पुद्गल है। शरीर, वचन, मन, उच्छ्वास और निःश्वास तथा सुख, दुख, जीवन और मरण-ये सब पुद्गल के कार्य हैं। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मपना, स्थूलपना, संस्थान (आकार), भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत (ठण्डा प्रकाश)-ये सभी पुद्गल की पर्यायें हैं। जीव और पुद्गल के चलने में जो सहायक हो, वह धर्म है और उनके रुकने में जो सहायक हो वह अधर्म है। लोक-प्रचलित धर्म और अधर्म शब्दों से ये धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य सर्वथा भिन्न हैं। आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली में इन्हीं धर्म और अधर्म द्रव्य को क्रमशः तेजोवाही ईथर (Eumanitenous-ether) और क्षेत्र (Field) का स्थानापन्न माना जा सकता है। जो ठहरने को स्थान दे, वह आकाश-द्रव्य है। इसे ही वैज्ञानिक शब्दावली में स्पेस (Space) कहते हैं। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य प्रतिक्षण स्वतः नवीन पर्याय को धारण
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy