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________________ 53/3 अनेकान्त/29 अधिक महिमावान् हैं। सूर्य सायंकाल में अस्त हो जाता है, उसे राहु ग्रस लेता है, वह द्वीपार्ध को ही प्रकाशित करता है, उसके प्रकाश को मेघ ढक लेता है जबकि आप सदा प्रकाशित रहते हैं, राहु आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता है, आप तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं तथा आपके प्रकाश को कोई ढक नहीं सकता है। इस प्रकार श्री मानतुंगाचार्य ने आराध्य के समक्ष लोकप्रसिद्ध उपमानों की हीनता दिखाकर व्यतिरेक की सुन्दर योजना की है। अनन्वय की एक सुन्दर योजना भी द्रष्टव्य है - 'यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत!। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यन्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति।।' भक्तामर, 12. हे लोकशिरोमणि! आपकी रचना जिन पुद्गल परमाणुओं से हुई है, वे परमाणु लोक में उतने ही थे, क्योंकि तुम्हारे समान दूसरा कोई रूप नहीं है। ____ आराध्य के समक्ष अन्य सभी देवों को आराध्य से हीन मानना स्तवन का एक अंग सा रहा है। वेदों में प्रायः इस तरह के वर्णन पुराकाल से ही उपलब्ध हैं। भक्तामर-स्तोत्र में भी लोक में मान्य अन्य देवों की हीनता का वर्णन किया गया है। आराधक की दृष्टि में उनके आराध्य जिनेन्द्र भगवान् के अव्यय, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक, ज्ञानस्वरूप और अमल नाम हैं। देवों से पूजित बुद्धि के बोध से वे ही बुद्ध हैं, तीनों लोकों को मंगलकारी होने से वे ही शंकर हैं, शिवमार्ग की विधि को बताने से वे ही ब्रह्मा हैं और सभी पुरुषों में उत्तम होने से वे ही पुरुषोत्तम हैं - बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात्, त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्। धातासि धीर! शिवमार्गविंधेर्विधानात्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ।। इस प्रकार विविध परम्परा के लोकनायकों के लिए प्रचलित नामों की अपने आराध्य में अन्वर्थकता दिखाकर आचार्य मानतुंग ने लोक-मनोविज्ञान पर अपनी पकड़ सुस्पष्ट की है।
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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