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________________ 53/3 अनेकान्त/9 मन्दता के कारण किसी लक्ष्य में नहीं आता, इसलिये दिग्द्रत का पालक अणुव्रती दिग्वत की मर्यादा के बाहर महाव्रती कहा जाता है। इ. पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक 160 में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी लिखते हैं : इत्थमशेषित हिंसः, प्रयाति स महाव्रतित्वमुपचारात्। उदयति चरित्र मोहे, लभते तु न संयम स्थानम्।। 160 ।। अर्थ – इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकार की हिंसाओं से मुक्त होने से वह श्रावक उस समय उपचार से महाव्रतीपने को प्राप्त होता है, किन्तु चारित्र माह कर्म के उदय से वह संयम स्थान को नहीं पाता है। ई. श्रावकाचार-संग्रह भाग-1, पृप्ट-24, पर लिखत है कि - हिंसादिषु सर्वेष्वनासक्त चित्तोऽभ्यन्तर प्रत्याख्यान संयम घाति कर्मोदय जनित मन्दाविरति परिणामे सत्यपि महाव्रतमित्युपर्चते। (चरित्र-सार) अर्थ - यद्यपि उसके भीतर संयम का घात करने वाले प्रत्याख्यानावरण कपाय रूप कर्म के उदयजनित मंद अविरत परिणाम पाये जाते हैं, तथापि हिंसादिक सर्वसावध यांग में अनासक्त चित्त होने से उसके अणुव्रतों को उपचार से महाव्रत कहा जाता है। उ. प्रवचनसार-गाथा नं. 224-8 (अनेकांत विद्वत् परिषद् प्रकाशन) पृष्ठ 530 अथमतम - यदि मोक्षानास्ति तर्हि भवदीयमते किमर्थमर्जिकानां महाव्रतारोपणम? परिहारमाह - तदुपचारेण कुल व्यवस्था निमित्तं । न चोपचारः साक्षाद् भवितुमर्हति, अग्निवत् ऋगेऽयं देवदत्त इत्यादिवत् तथा चोक्तम्-मुख्याभावे सति प्रयाजन निमित्त चोपचारः प्रवर्त्तते। शंका – यदि स्त्रिया को मोक्ष नहीं होता तो आपके मत में किसलिए आर्यिकाओ का महाव्रतों का आरोपण किया गया है। समाधान - यह उपचार कथन, कल की व्यवस्था के निमित्त कहा है। जो उपचार कथन है वह साक्षात नहीं होता। जसे यह कहना कि यह देवदत्त अग्नि के समान कर है इत्यादि। इस दृष्टांत में अग्नि का मात्र दृष्टांत है, देवदत्त साक्षात अग्नि नही। इसी तरह स्त्रियों के महाव्रत जैसा आचरण है, महाव्रत नही, क्याकि मुख्य का अभाव होने पर भी प्रयोजन तथा निमित्त के वश उपचार-प्रवत्तता है, ऐसा आर्ष वाक्य है। इसके अलावा अन्य बहुत से श्रावकाचारों में श्रावक को उपचार से मुनि
SR No.538053
Book TitleAnekant 2000 Book 53 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2000
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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