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________________ अनेकान्त/२६ बगल में मयूरपंख की पिच्छी धारण किए हुए था। वह अपने हाथ में नारियल का बना कमण्डलु लिए था। वेदधर्म के दूषक असत् शास्त्र को पढ़ रहा था। वह शीघ्र ही यहाँ आया जहाँ महाराज वेन थे। उस पापी ने वेन की सभा में प्रवेश किया। उसे देखकर वेन ने उसकी अगवानी की। आगे यह भी कथन है कि राजा वेन ने उससे अपनी कछ जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप राजा वेन जैनधर्मी हो गया। इससे यह बात सिद्ध होती है कि जैन साधु का प्रवेश राजघरानों में निराबाध होता था और कोई-कोई राजा लोग भी अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर जैनधर्म अंगीकार कर लेते थे। बाल्मीकि रामायण में श्रमण बाल्मीकि रामायण में ब्राह्मण, श्रमण और तापसों का पृथक पृथक उल्लेख किया गया है। राम को जिस शबरी ने बेर खिलाए थे, उसे भी श्रमणी कहा गया है। रामायण बालकांड सर्ग १४ श्लो. २२ में दशरथ का श्रमणो को भोजन देना लिखा है ब्राह्मणाः भुञ्जते नित्यं नाथवतश्चभुञ्जते। तापसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुजते।। श्रमण शब्द का अर्थ भूषण टीका में दिगम्बर किया है। पञ्चतंत्र में क्षपणक का उल्लेख पञ्चतंत्र (अपरीक्षित कारकम्) में पद्मनिधि नामक क्षपणक का उल्लेख हआ। नापित ने क्षपणकों को नग्नकाः कहा है। उनके विहार का क्षपणक विहार के रूप में उल्लेख हुआ है। जिनेन्द्र की स्तुति में यहाँ दो पद्य कहे गए हैं जयन्ति ते जिनायेषां केवल ज्ञानशालिनाम् । आजन्मनः स्मरोत्पत्तौ मानसेनोषरायितम् ।। १२ ।। सा जिह्या या जिनं स्तौति तच्चितं यज्जिने रतम् । तावेव च करौ श्लाध्यौ यो तत्पूजा करौ करौ।। १३ ।। वे जिन जयशील होते हैं। केवल ज्ञान से विशिष्ट जिनका मन जन्म से ही कामदेव की उत्पत्ति के लिए ऊषर भूमिवत् बन चुका है।
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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