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अनेकान्त / २४
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में अधिक व्यवस्थित और तर्क-संगत हैं 1
प्रो. हचिंसन के अनुसार, जैनधर्म के सिद्धांत संसारी जीवों के लिये नहीं हैं । यह अ - संसारिक धर्म है। फिर भी, यह अभी भी जीवित है, यह विचारणीय प्रश्न है। आनंदवादी पश्चिम के लिये जैन सिद्धांत आघात - सा उत्पन्न करते हैं।
कुछ लेखकों ने जैनतंत्र को तपस्वियों एवं मुक्ति का धर्म ही माना है । अनंत सुख के लिये मुनित्व अनिवार्य है ।
ब. जैनधर्म का उद्भव और महावीर का जीवन-चरित
अनेक लेखकों की 1995 तक की प्रकाशित पुस्तकों में महावीर को जनधर्म का संस्थापक कहा गया है । तथापि, अनेक लेखक तीर्थकर परम्परा का उल्लेख भी करते हैं । कुछ पुस्तकों में महावीर को जैनधर्म का ऐतिहासिक सस्थापक बताया गया है और उसके पूर्व के इतिहास पर मौन रखा गया है। फिर भी, कुछ विद्वानों ने महावीर को जैन परम्परा को पार्श्व की तुलना में अधिक सकारात्मक रूप ( ब्रह्मचर्य, प्रतिक्रमण आदि) देने वाला प्रवर्तक और वर्धक बताया है। डॉ. राइस तथा डॉ. जिमर के समान विद्वानों के जैन
के आर्य - पूर्वकाल (1700-2700 ई.पू.) के अस्तित्व के मत की तुलना म उन लेखकों के मत एकांगी ही लगते हैं ।
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प्राय सभी पुस्तकों में महावीर का जीवन चरित पाया जाता है जो कल्पत्र के विवरण पर आधारित होता है (गर्भाहरण, विवाह, एक पुत्री, देवदूष्य यदि कुछ लेखक इनके जीवन में कुछ चमत्कारिकता भी मानते हैं)। फिर भी, सा, मुहम्मद या बुद्ध जैसा चमत्कारिक न होने से पश्चिमी विद्वानों ने उनके चरित को अनाकर्षक, औपचारिक, अल्पविश्वसनीय एवं पौराणिक माना है । ये लेखक एक ओर जहां महावीर को घोर साधक, साहसी, जटिल दार्शनिक एवं सक्षम संगठक मानते हैं, वहीं वे उनके कठोर साधनामय जीवन की चर्चा करते हुए उन्हें अतिवादी एवं कष्टप्रद विवेकशून्य प्रवृत्तियों में रत साधु भी कह देते हैं । जैनधर्म के प्रकृतिवादी होने के बावजूद भी उनके गर्भ जन्म आदि के विवरण परा- प्राकृतिक बताये गये हैं । ये पौराणिक अधिक लगते हैं । उनका