SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/31 (वाचना) का समय भी है। इससे पता चलता है कि बल्लभी के इस अंतिम अधिवेशन से ही श्वेताम्बर मत का प्रादुर्भाव हुआ।" । (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका खण्ड-10 पृष्ठ 11 सन् 1981) दिगम्बर जैन समाज सदैव ही असंगठित रहा। अपने तीर्थों के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा तो रही किन्तु संगठन और धनाभाव के कारण उनके विकास और व्यवस्था के प्रति कुछ उदासीन भी रहा। ठीक इसके विपरीत मूर्तिपूजक श्वेताम्बर संगठित और धनाढ्य रहा। इसी का लाभ उठाकर उन्होंने प्राचीन तीर्थों पर अपना कब्ज़ा करने की कूटनीति अपनाई। इसी नीति के अंतर्गत उन्होंने शिखरजी को अपना साबित करने के लिए कई चालें चली। अकबर के फरमान के आधार पर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न किया किन्तु पटना हाईकोर्ट ने फरमान को जाली करार दिया। राजा पालगंज से खरीदारी के आधार पर तीर्थ को अपना बताया। पर्वतराज के बिहार सरकार में निहीत हो जाने से यह चाल भी नहीं चल पाई। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट की नज़ीर है कि मंदिर-पूजा स्थल बेचे और खरीदे नहीं जाते। अंततोगत्वा प्रिवीकोंसिल ने सभी प्राचीन टोंको में दिगम्बरी आम्नाय के चरण-चिन्ह प्रतिष्ठित होने की पुष्टि की। इस सब के बावजूद मूर्तिपूजक श्वेताम्बरों ने अन्य कई प्रकार के हथकण्डे अपना कर तीर्थराज पर अपना आधिपत्य जमाने और दिगम्बरों को हटाने का अभियान जारी रखा। ऐसे संकट काल में संगठन का अभाव होते हुए दिगम्बर जैन समाज के कई महानुभाव तीर्थराज की रक्षार्थ व्यक्तिगत रूप में आगे आए और समर्पण भावना से सेवा में जुट पड़े। इनमें सहारनपुर के सेठ जम्बूप्रसाद का नाम उल्लेखनीय है। उनके विषय में प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं। श्री जम्बूप्रसाद जैन का अद्भुत त्याग “सारा समाज सो जाये, कोई साथ न दे, तब भी मैं लडूंगा !" राजा ने सम्मेदशिखरजी का तीर्थ श्वेताम्बर समाज को बेच दिया था उससे तीन प्रश्न उभर आये थे। श्वेताम्बरों का आग्रह था कि हम दिगम्बरों को इस तीर्थ की यात्रा न करने देंगे, यह दिगम्बरियों का घोर अपमान था, यह पहला प्रश्न। राजा को तीर्थ बेचने का अधिकार नहीं है, क्योंकि तीर्थ कोई सम्पत्ति नहीं है, यह दूसरा प्रश्न और तीर्थ के सम्बन्ध में दिगम्बरों के अधिकार का प्रश्न। दिगम्बर समाज का हर एक आदमी बेचैन था, पर कोरी बेचैनी क्या करेगी? यहाँ तो आगे बढ़कर एक पूरा युद्ध सिर पर लेने की बात थी, उसके लिए
SR No.538052
Book TitleAnekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1999
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy