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अनकान्त,६
है। डॉ. शशिकान्त जैन ने भी शोधादर्श अक ३६ पृष्ठ २६१ पर ठीक ही लिखा है "-.--- जून १६६५ में शौरसेनी प्राकृत को ही मूल प्राकृत सिद्ध करने की हठधर्मिता ने श्वेताम्बर आम्नाय के साधु और विद्वानो की अर्धमागधी (जिसमे श्वेताम्बर आगम निबद्ध है) को प्राचीनतर और महावीर की मूल प्राकृत सिद्ध करने मे लामबन्द कर दिया।"
नि.संदेह डॉ टाटिया की चाल काम कर गई। उन्होने इन्हे शौरसेनी में समर्थन दिया ताकि ये इसमे दृढ रहे और श्वेताम्बर आगम पूर्ववर्ती सिद्ध हो। बस, उनका काम हो गया और लाडनूं जाकर वे वचनो से बदल गए और ये शौरसेनी के गीत गाते रहे। जिसका परिणाम ये बदलता कैन्सर है।
वस्तु स्थिति को नकारने की हठधर्मिता का भयावह रूप अब सामने आने लगा है। लोगो ने सर्वज्ञ वाणी से परम्परित गुम्फित आगमो को शिलालेखो जैसे अस्पष्ट आधारो से प्रमाणित करना शुरू कर दिया है। कुछ दिन पहले हमे एक लेख सपादक-तुलसी प्रज्ञा का मिला था, जिसमे खारवेल के शिलालेख से आगमिक 'न' और 'ण' की सिद्धि का उल्लेख था। हमने सम्पादक महोदय को लिखा कि सभी के आगम सभी को स्वत प्रमाण होते हैं-आगमो को पर से प्रमाणित करने की बात आगमो में अश्रद्धा करना है। आदि। हम ठीक नही समझते कि अल्पज्ञ से सर्वज्ञ की वाणी को प्रमाणित कराया जाए जैसाकि चलन बन गया है। काश | मान ले कि खारवेल सर्वज्ञ थे और उनकी वाणी शिलालेख पर ठीक से उत्कीर्ण हुई है तो टंकित सवसिधानं को भी मान्यता देकर हमारे प्रचलित मंत्र में उक्त पद मान लेना चाहिए पर ऐसा सम्भव नहीं। इसे न श्वेताम्बर स्वीकारेगे और न दिगम्बर । आखिर अपने-अपने ढंग मे उक्त मंत्र दोनो का है। किसी खास भाषा या व्याकरण से इसका सबध नहीं-यह तो अभेद प्राकृत का है। किसी विभक्त एक भाषा का नही और यही भाषा जिसे अर्धमागधी कहा जा रहा है दिगम्बर आगमों की भाषा है। वही हमे स्वीकार है और इससे ही हमारे परम्परित पूर्वाचार्यो में हमारी श्रद्धा जगती है।