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अनेकान्त/३७
अम्बिका कल्प
इसके कर्ता शुभचन्द्र है। यह कल्प सात अधिकारो मे विभाजित हैं। इसकी एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि जैन सिद्धात भवन, आरा मे है।२८ दिल्ली जिन ग्रन्थ रत्नावली पृ० १२१ एव जिनरत्नकोष, पृ० १५ पर भी इसकी सूचना है।
इनके अतिरिक्त मानतुंग का भक्तामर स्तोत्र, मलयक़ीर्ति का सरस्वती कल्प२९, गणधरवलयकल्प, घटाकर्णवृद्धिकल्प, प्रभावती कल्प३०, जिनप्रभसूरि का रहस्यकल्पद्रुम और शारदा स्तवन (सरस्वतमंत्र गर्भित), दुर्गदेव का मत्र-महोदधि, हेमचन्द्रसूरि का सिद्धसारस्वत स्तव, शुभसुन्दर गणिकृत यन्त्रमन्त्रभेषजादिगर्भित युगादिदेव स्तव, भद्रबाहु का उपसर्गहर स्तोत्र, मानतुगसूरि का नमिऊण अपरनाम भयहर स्तोत्र, पूर्णकलशगणि का स्तम्भनपार्श्व स्तवन, मानदेवसूरि का लघुशांति स्तव, अरिष्टनेमि भट्टारक का श्रीदेवता कल्प, अर्हद्दास का सरस्वती कल्प, सिहनन्दी का नमस्कारमन्त्र कल्प३१, चक्रेश्वरी कल्प, सूरिमत्र कल्प, श्रीविद्या कल्प, ब्रह्मविद्या कल्प, रोगा महारिणी कल्प२ तथा पर्याप्त सख्या मे मत्र-स्तोत्र रचे गये हैं। इनमें अप्रकाशित ग्रन्थों की सख्या भी पर्याप्त है। अनेक अप्रकाशित ग्रन्थो की पाण्डुलिपियाँ ग्रन्थागारो मे उपलब्ध है, किन्तु समुचित देख-देख के अभाव में नष्ट हो रही हैं। अतः इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।
जैन परम्परा के विद्यानुवाद पूर्व एव चूलिकाओ मे उल्लिखित प्राचीन मंत्र-तंत्र और विद्याएँ तो प्राय लुप्त हो गई। तद्विषयक जो साहित्य आज उपलब्ध हैं, वह तान्त्रिकयुग की देन माना जा सकता है। भारतीय इतिहास का वह ऐसा समय था जब चमत्कार को ही नमस्कार किया जाता था। उस काल मे जैन परम्परा पोषक भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होने भी शक्तिधारक देवी-देवताओं (यक्ष-यक्षियों) की आराधना एवं सिद्धि द्वारा चमत्कार दिखलाये और साहित्य रचा। इससे जैन धर्मावलम्बियों को एक सूत्र में बांध कर रखा जा सका । सम्प्रति मंत्र-तंत्र विद्या के साधकों का जैनो मे अभाव होता जा रहा है। अतः पुनः इस विद्या के विलुप्त होने का संकट बढ़ता जा रहा है। इसकी रक्षा के लिए प्रयत्न आवश्यक है।