SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/२९ जैन परम्परा मे चौबीस तीर्थकरो के शासनदेव स्वीकार किये गये है, वे यक्ष और यक्षी युगलरूप होते है ये शासन तीर्थकरो के आराधको के सकटो का निवारण करने वाले तथा अनेक सिद्धियो के दाता माने जाते है। जैन परम्परा के मत्र-तत्र विषयक साहित्य मे पहले तीर्थकर ऋषभदेव की शासनदेवी चक्रेश्वरी, आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ की शासनदेवी ज्वालामालिनी, बाईसवे तीर्थकर नेमिनाथ की शासनदेवी अम्बिका अपरनाम कृष्माण्डिनी और तेईसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ की शासनदेवी पद्मावती की आराधना विशेष रूप से की गई है। यहाँ सरस्वती देवी का भी खूब प्रभाव दिखाई देता है। स्तुति-मत्रो के जाप और होम करने से सिद्धिया प्राप्त होती है। उन सिद्धियो का स्व-पर उपकार के लिए प्रयोग मे लाना तत्र है। मत्र, यंत्र, सिद्धि विधान एव प्रयोग आदि का विस्तृत विवरण सम्बद्ध ग्रन्थो मे उपलब्ध होता है। यहाँ जैन परम्परा के कतिपय तत्र-मत्र विषयक ग्रन्थो का सक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है अनुभवसिद्धमंत्र द्वात्रिंशिका इसके कर्ता आचार्य भद्रगुप्त है। एच० आर० कापडिया ने इसका रचनाकाल विक्रम की सातवी सदी माना है। इस द्वात्रिशिका का प्रकाशन “भैरव पद्मावती कल्प” के तीसवे परिशिष्ट के रूप मे सन् १९३७ मे अहमदाबाद से हुआ है। रचनाकार ने ग्रन्थारम्भ मे इसे “मत्र-द्वात्रिशिका' तथा अन्त मे “महामत्र- द्वात्रिशिका' कहा है। इसमे कुल पॉच अधिकार है, जिसमे क्रमश २०, ४९, ४१, ५० एव २४ श्लोक है। मगल पद्य के बाद कहा गया है कि स्तभन, मोहन, उच्चाटन, वश्याकर्षण, जभन, विद्वेषण, मारण, शान्तिक, पौष्टिक आदि को विधि के अनुसार इस शास्त्र मे कहूँगा। प्रथम अधिकार के आठवे श्लोक मे बताया गया है कि "विद्याप्रवादपूर्व के तीसरे प्राभृत से श्री वीरस्वामी के द्वारा कर्मघात के निमित्त यह उद्धृत किया गया है। प्रथम अधिकार को “सर्वकर्मकरण” नाम दिया गया है। द्वितीय अधिकार मे अपराजिता देवी की सिद्धि प्राप्त करने वाले को लोक मे अपराजित बताया गया है। यहाँ “पिशाचिनी नामक विद्या का सिद्धिविधान भी कहा गया है। तीसवे पद्य मे मत्र विधि को “परमागमसंप्रोक्त" कहा है। यहाँ यह भी बताया गया है कि मनुष्य जिस-जिस सासारिक कार्य का विचार करता है, इस मत्र के प्रभाव से उसे वह सब कुछ प्राप्त होता है।
SR No.538051
Book TitleAnekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1998
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy