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अनेकान्त/३९
सभी दर्शनो द्वारा माने गए वस्तु के सद्भूत अशों का परस्पर सापेक्ष कथन करना स्याद्वाद है अर्थात् सत् असत् उभय रूप, नित्य अनित्य उभय रूप, सामान्य विशेष उभय रूप, वाच्य आवाच्य उभयरूप अनेकान्त है। यद्यपि सभी दर्शन अपने अपने मतभेद के कारण परस्पर विरोध करते हैं तथापि उनके द्वारा कहे हुए वस्तु-अश परस्पर सापेक्ष होने पर समीचीनता प्राप्त कर लेते हैं।
अन्यत्र इसी ग्रथ की कारिका ५७ की टीका के पैरा ३७० का अनुवाद करते हुए महेन्द्र कुमार शास्त्री ने अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है। ___ अनेकान्त सच्चे एकान्त का अविनाभावी होता है। यदि सम्यक् एकान्त न हो तो उनका समुदाय रूप अनेकान्त ही नही बन सकेगा। नय की दृष्टि से एकान्त और प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्त माना जाता है। जो एकान्त एक धर्म वस्तु के दूसरे धर्मों की अपेक्षा करता है उनका निराकरण नही करता वह सच्चा एकान्त है यह सुनय का विषय होता है। जो एकान्त अन्य धर्मों का निराकरण करता है वह मिथ्या एकान्त है यह दुर्नय का विषय होता है। सम्यक् एकान्तों के समुदाय को ही अनेकान्त-अनेक धर्मवाली वस्तु कहते हैं।
इसलिए हमें भूतार्थ का अर्थ पूर्ण सत्यार्थ और अभूतार्थ का, असत्यार्थ का, मिथ्यादर्शन का अर्थ करना चाहिए कि सच तो है मगर तनिक सच, सत्याभास । यही है सम्यक् मिथ्यात्व, दही गुड़ का स्वाद । ___ तलाश है सत्य की, सपूर्ण सत्य की, आत्म तत्त्व के अपने रूप की, स्व रूप की, तो फिर उसको समझने समझाने के लिए आवश्यकता है सापेक्ष नयवाद की, व्यापक दृष्टि की, समग्रता और समन्वयता की याने स्याद्वाद और अनेकान्त की। अनन्त आत्म तत्त्व के स्व रूप को अनेकान्त के दर्शन द्वारा ही जाना जा सकता है, वही है सम्यग्दर्शन । इसे यो कह ले कि विचार के वातायन सदा खुले रहने चाहिए, नवीन और नवीनतर विचारो, नए दर्शन का स्वागत करते रहना 'चाहिए और तभी सर्वज्ञ का मार्ग प्रशस्त होगा । दर्शन का अर्थ ही होता है जो है उसे देखना और ऋषि होता है दृष्टा-भूतार्थ को यथार्थ को देखने वाला । सत्याश भ्रम पैदा करता है, सत्याभास व्यामोह पैदा करता है और वही है आत्मा पर आवरण-दर्पण पर धूल-मोहनीय कर्म और वही है सत्य का घोर शत्रु-आत्मघाती-घातिया कर्म ।
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