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अनेकान्त/२६
__ कुछ दिन पूर्व श्री नीरजजी सतना ने सावली हिम्मतनगर मुमुक्षु मडल द्वारा प्राचीन प्रतिमाओ की प्रशास्ति मिटाकर अपनी नई प्रशास्ति अकित कर देने की घटना को समाज के समक्ष रखा था, उसका उचित समाधान यह हो गया कि मुमुक्षुगण और उनके प्रतिष्ठाचार्यजी की अज्ञानतावश यह कार्य हुआ। एक शिलापट्ट पर पुरानी प्रशस्ति पृथक लगा देना निश्चित हुआ, परन्तु इस विषय मे मेरा निवेदन है कि मैने उन प्रतिमाओ पर नई प्रशस्ति लिखने का विरोध कर दिया था फिर भी प्रशस्ति लिखी गई। ये लोग क्षमा मागकर अपनी इच्छानुसार काम कर लेते है। यह उनकी विजय का तरीका है जिस प्रकार हम उक्त पुस्तको का विरोध कर रहे है, जो क्षणिक है जबकि उनका कार्य स्थाई रहने वाला है। ३. इस पुस्तक मे पृष्ठ ७९ पर लिखा है कि “प्रतिमा पर जलक्षेपण न करे। अनादिकाल से जो कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाओ के अभिषेक का उल्लेख शास्त्रो मे आता है, उन सब पर यह लिखकर लेखक ने पानी फेर दिया। अभिषेक का उद्देश्य नही समझा। ४. लेखक लिखते है कि “अभिषेक मूर्ति पूजा का अग नही है जबकि 'विद्वज्जन-बोधक (तेरापथ शुद्ध आम्नाय ग्रथ) के पृष्ठ ३०५ पर पूजा का अग माना है। 'अभिषेक गर्म जल से करना चाहिए' यह भी उचित नहीं है। 'विद्वज्जन-बोधक' पृष्ठ ३०५ पर “मुहूर्त गालित तोय प्रासुकम्” ठडा छना जल एक मुहूर्त तक अभिषेक हेतु प्रासुक है। यह प्राचीन शास्त्र को प्रमाण दिया गया है। बाद मे फिर छन सकता है। ५. पूजा का विसर्जन अंग नही मानना भी उचित नही, जबकि पूजा के पाच अगो मे पृष्ठ ३०७ पर विद्वज्जनबोधक मे विसर्जन को पूजा का अनिवार्य अग मानते है। इसमे पूजा विधि का प्रारभ करने के बाद समाप्ति हेतु विसर्जन माना गया है। ६. लेखक सोलह कारण पूजा को कर्म के आश्रव का कारण मानकर निषेध करते है, कितु “विद्वज्जन-बोधक पृष्ठ ३१४ पर सोलह कारण पूजा रत्नत्रय के समान जिन धर्म के अतर्गत करना उचित बताया है। ७. पूजा के प्रचलित आठ द्रव्य चढ़ाने के क्रम को पूजाओ मे जल आदि आठ द्रव्य को ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अतराय, वेदनीय, नाम, गोत्र, आयु कर्म विनाश हेतु बताकर बदल दिया है, जो अपनी स्वय की कल्पना है। यह पथक् न लिखकर पूजाओ मे जोड़ देना बहुत बड़ा अनर्थ और पूजको मे भ्रम