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________________ अनेकान्त/३० तीसरी प्रति की प्रशस्ति मे कालसूचक निम्नलिखित दो दोहे हैं "संवत् अष्टादश शतक वानवे अधिक सुजान। फाल्गुण कृष्ण अष्टमी बुधे पूरण भये गुणखान।। रघुनाथ दूज के लिखे भव्यन के धर्म काज। वाचै सुनै सर्दहै पावै सर्व सुखधाम।।" चौथी प्रति बाबा दुलीचद का शास्त्र भंडार, दि जैन मन्दिर तेरहपंथी बडा जयपुर की है। इसकी पत्र संख्या ६५ है। रचनाकाल सं. १८४२ सुदी ५ है। रचना स्थान रेवाडी तथा वेष्ठन सख्या ६६० है। पाँचवीं प्रति शास्त्रभंडार दि जैन मन्दिर चौधरियों का जयपुर की है, जिसका रचनाकाल स १८४२ तथा लेखन काल सं १८८७ बताया गया है। इसकी पत्रसख्या-२६ तथा वेष्टन संख्या-८८ है। प्रति पूर्ण है। ७. सम्मेदशिखर माहात्म्य - इसके कर्ता मनसुखलाल है। इसकी पत्र सख्या-१०६ तथा वेष्टन सख्या-१०५६ है। यह प्रति शास्त्र भंडार दि जैन मन्दिर पाटोदी, जयपुर मे स्थित है। अन्त में रचना सम्बन्धी निम्न दोहा दृष्टव्य है --- बान बेद शशि गये विक्रमार्क तुम जान। अश्वनि सित दशमी सुगुरु ग्रन्थ समापत जान।। यह लोहाचार्य विरचित ग्रन्थ की भाषा टीका है। इसकी दूसरी प्रति शास्त्र भडार दि जैन मन्दिर चौधरियों का जयपुर मे उपलब्ध है। इसकी पत्र संख्या १०२ तथा वेष्टन संख्या ७८ है। लेखन काल चैत सुदी २ सवत् १८८४ है। तीसरी प्रति शास्त्रभंडार दि जैन मन्दिर संघी जी, जयपुर में है। जिसकी पत्र संख्या-६२ तथा वेष्टन संख्या-७६६ है। लेखनकाल चैत सुदी-१५ संवत् १८८७ है। __ चौथी प्रति शास्त्र भंडार दि जैन मन्दिर विजयराम पाण्या, जयपुर में उपलब्ध है। इसकी पत्र संख्या-१४२ तथा वेष्टन संख्या-२२ है। प्रति का लेखनकाल पौष सुदी-१५ सवत् १६११ है। पाँचवीं प्रति दि. जैन बडा मन्दिर तेरहपंथियो का जयपुर में उपलब्ध
SR No.538051
Book TitleAnekant 1998 Book 51 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1998
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size4 MB
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