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अनेकान्त / २०
उस बालक को बडे आश्चर्य से देखा और विचार किया कि यह अवश्य ही कोई महापुरुष होगा। इसकी शक्ति अवश्य लोकोत्तर होगी। अन्यथा, कौन पुरुष नागेन्द्रो द्वारा सुरक्षित इस हार के साथ क्रीडा कर सकता है |२
'अभिज्ञानशाकुन्तल' में जब दुर्वासा ऋषि कण्व के आश्रम मे पहुँचते है और शकुन्तला दुष्यन्त के प्रति आसक्तचित्त होने के कारण उनका यथोचित आदर नहीं कर पाती, तब वह उसे शाप दे देते है कि जिसके विषय मे एकासक्तचित्त होकर सोचती हुई तुम आये हुए मुझ तपस्वी को नही जान रही हो, वह पहले कही हुई बात को याद नही करने वाले उन्मत्त व्यक्ति की तरह, याद दिलाने पर भी तुमको स्मरण नही करेगा । प्रियवदा और अनसूया नामक शकुन्तला की सखियो को जब दुर्वासा के इस शाप की प्रतीति हुई, तब प्रियवदा ने बहुत अनुनय-विनय कर उन्हे दयाद्रवित किया और उनसे पहचान के आभूषण दिखलाने से शाप की समाप्ति होने का आश्वासन दिला दिया ।
इसी प्रकार के शाप का एक प्रसंग 'पद्मचरित' मे भी आया है I आनन्दमाल नामक मुनिराज एक बार जब प्रतिमायोग के साथ विराजमान थे, तब विद्याधरो के राजा इन्द्र ने अहकारवश उनकी बार-बार हॅसी उडाई तथा उन्हे रस्सियो से कसकर लपेट लिया। फिर भी, वह निर्विकार रहे। पर, उन्ही के समीप कल्याण नामक दूसरे मुनि बैठे थे, जो उनके भाई थे, यह दृश्य देख बहुत दुःखी हो गये। वह मुनि भी ऋद्धिधारी थे तथा प्रतिमायोग के साथ विराजमान थे। उन्होने प्रतिमायोग का सकोच कर तथा लम्बी और गरम सॉस भरकर इस प्रकार शाप दिया कि चूँकि इन्द्र ने निरपराध मुनिराज का तिरस्कार किया है, इसलिए वह भी बहुत भारी तिरस्कार को प्राप्त होगा । वह मुनि अपने अपरिमित श्वास से इन्द्र को भस्म ही कर देना चाहते थे, पर इन्द्र की सर्वश्री नामक स्त्री ने मुनि को शान्त कर लिया । सर्वश्री सम्यग्दर्शन से युक्त तथा मुनिजनो की आराधिका थी, इसलिए मुनि भी उसकी बात मानते थे ।
'अभिज्ञानशाकुन्तल' मे तपस्या की शक्ति का वर्णन किया गया है शमप्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेजः । स्पर्शानुकूला इव सूर्यकान्तास्तदन्यतेजोऽभिभवाद्वमन्ति । ।
(अभिज्ञानशाकुन्तलम, २ / ७)