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________________ अनेकान्त/१६ प्रथम, चतुर्थ, पचम व षष्ठ गुणस्थानो की प्रकृतियो का अभाव हो जाता है। चौथे गुणस्थान का सम्बन्ध ही नहीं रहता। प्रथम उद्धरण मे “सम्यक्त्व ज्ञानानुचरण पर्यायरूपेण परिणमति” यह पॅक्ति सातवे गुणस्थान की अभेद रत्नत्रय सूचक है। __मेरे उक्त कथन को सद्भाव से पढ़ा जाय । इसका खडन कर स्वामी जी के प्रवचनो का महत्व बनाये रखने हेतु जो भी प्रयन्त होगा उस पर हमारे पुराने वरिष्ठ विद्वानो को ध्यान देना चाहिए, क्योकि स्वामी जी ने अपने प्रवचन मे अपने कथन की पुष्टि के लिए श्रोता रूप मे उपस्थित समाज के शीर्षस्थ विद्वानो का नामोल्लेख किया है। नोट - निर्णय हेतु समयसार एव गोम्मट्सार कर्मकाड अवश्य देखे । शीश महल, इन्दौर हम इकट्ठा करने मे रहे और सब कुछ खो दिया। यह एक ऐसा सत्य है जिसे लाखो लाख प्रयत्नो के बाद भी भुलाया नहीं जा सकता। हम जैसे जैसे जितना परिग्रह बढ़ाते रहे वैसे वैसे उतना जैन’ हमसे दूर खिसकता गया और आज स्थिति यह है कि हम जैन होने के साधनभूत श्रावकोचित आचार-विचार मे भी शून्य जैसे हो गये। लोगो ने बड़ी बड़ी खोजे की, उन्होने सारा ध्यान उन पर शोध-प्रबन्धो के लिखने मे केन्द्रित किया, उन्हे प्रकाशित कराया और उन पर वे विविध लौकिक पुरस्कार पाते रहे और वे भी अहिसा, दान आदि के विविध आयामो से विविध रूपो मे परिग्रह-सचयन और मान-पोषण आदि मे लीन रहे जिससे वीतरागता का प्रतीक 'अपरिग्रहत्व-जैनत्व' लुप्त होता रहा। हमारी दृष्टि मे 'अपरिग्रहवाद' को अपनाने के सिवाय 'जैनधर्म के सरक्षण का अन्य उपाय नहीं। मूल जैन-संस्कृति 'अपरिग्रह' से - - - - - -
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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