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अनेकान्त/ टीकाकार आचार्य अमृतचंद्र ने स्वयं ही संस्कृत टीका में समयप्रामृत' को 'आगम' कहा है
'शास्त्रमिदमधीत्य' (इस शास्त्र को पढ़कर) इसी भांति जयसेनाचार्य ने भी "समयप्रामृताख्यमिदं शास्त्रं पठित्वा' (समय प्रामृत नामक इस शास्त्र को पढ़कर) कहकर इसे शास्त्र कहा है- आत्मा नहीं कहा। पढिदूण' शब्द से तो यह और भी स्पष्ट होता है कि यह शास्त्र ही है और उसे ही पढ़ा जाता है। आत्मा को पढ़ा नहीं जाता उसकी अनुभूति मात्र (वह भी ऊँची अवस्था में जाकर) की जा सकती है।
कालान्तर परम्परा में कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने प्राकृत ग्रन्थ समयपाहुड पर गाथाओं की संस्कृत में टीका लिखी और संस्कृत में स्वतंत्र कलश भी लिखे। उन्होंने मंगलाचरण के प्रथम कलश में 'नमः समयसाराय' लिखकर उसे-'चित्स्वभावाय से विशिष्ट कर दिया। इस भाँति वह शास्त्र न होकर चेतन मात्र हो गया। ऐसा सब उनके भाव में संस्कृत व्युत्पत्ति सम्यकप्रकारेणस्वगुणपर्यायान् गच्छति इति समय के अनुसार पदार्थ सूचक हो गया। और पदार्थों में सार भूत आत्मा है। इस प्रकार संस्कृत कलश का नाम 'समयसार' हुआ, न कि समय पाहुड' का नाम 'समयसार' हुआ- जो कि वर्षों वर्षों से चला आ रहा है और धड़ाधड़ आचार्य कुन्दकुन्द के मूलग्रंथ पर अच्छे-अच्छे प्राकृतज्ञों द्वारा भी प्रचारित किया जा रहा है। इसमें किसी को कभी आपत्ति नहीं हुई।
हमारी दृष्टि में पूर्व के प्रकाशनों में कहीं कहीं 'समयप्राभृत' (वह भी संस्कृताधार पर) छपता रहा है। अब आगे प्रकाशनों में समय पाहुड नाम ही छपाकर, मूलनाम को सुरक्षित रखना चाहिए। ऐसा हमारा मन्तव्य है।
हम पाठकों को यह सन्देश भी दे दें कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के पद्मप्रभाचार्य के शिष्य श्री देवनन्दाचार्य विरचित. एक प्राकृत ग्रन्थ 'समयसार पगरण' नाम का स्वोपज्ञटीका सहित श्वेताम्बरों में भी उपलब्ध है। जिसका प्रकाशन आत्मानन्द समा भावनगर से वि.स. 1971 में हुआ। इसकी रचना वि.स. 1469 में हुई बतलाई है।
इस ग्रन्थ में दश अध्ययन हैं, जो दिगम्बर सम्प्रदाय के समयपाहुड की भांति जीव, अजीव आदि सात तत्वों, ज्ञान दर्शन चरित्र आदि के वर्णन से पूर्ण हैं। यह ग्रन्थ भी आगम के सार रूप में ही लिखा गया प्रतीत होता है। इसे भी केवल आत्मा के वर्णन में लिखा गया नहीं माना जा सकता।