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________________ समयसार या समयपाहुड? -ले. पद्मचन्द्र शास्त्री, 'संपादक' दिगम्बर जैनाचार्यों में कुन्दकुन्दाचार्य ख्याति प्राप्त बहुश्रुत विद्वान माने गए हैं और उनकी गणना प्रमुख दिगम्बराचार्यों में है। उनके द्वारा अनेक ग्रन्थों की रचना की गई है, इनमें पाहुडों की संख्या अधिक है। कहते हैं कि इन्होंने चौरासी पाहुडों की रचना की। उनमें कुछ ही पाहुड उपलब्ध हैं और वे पाहुड नाम से ही प्रसिद्ध हैं। 'समयपाहुड' उनका ऐसा ग्रंथ हैं जिसमें सभी पदार्थों के माध्यम से जीव को मुक्ति प्राप्त करने का उपाय बतलाया गया है। ___ यद्यपि 'समुपाहुड' के पठन-पाठन की परम्परा पहिले के उच्चकोटि के गिने चुने कुछ ही विद्वानों में रही, परन्तु वर्तमान में इसकी गाथाओं के पठन-पाठन के प्रचार का श्रेय श्रीकानजी भाई को प्राप्त है। आज स्थिति यह है कि हर व्यक्ति इसके स्वाध्याय के प्रति लालायित है। जहाँ हमें इसके स्वाध्याय के प्रति लोगों की रूचि तुष्टिदायक है, वहीं हमें कुत्रचित् इसके पठन-पाठन की विधि में अनेकान्त दृष्टि की अवहेलना किया जाना अनिष्ट भी है। जो लोग 'समयसार' शब्द का आत्मा अर्थ करते हैं वे ही कुंदकुंद की 'सवणयपक्रवरहिदो भणियो जो सो समयसारो। (समयसार सर्वनय पक्षों से रहित है) गाथा की अवेहलना करते दिखते हैं। क्योंकि वे आत्मा की पहिचान में 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं' की उपेक्षा कर, केवल निश्चयनय द्वारा आत्मा के स्वरूप को बतलाने की चेष्टा करते हैं और व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ बतलाते है-अग्राह्य कहते हैं। जबकि आचार्य का उद्देश्य आत्मा को सभी नयों से अतिक्रान्त-सर्वनय निरपेक्ष बतलाना है। आचार्यों ने नय के प्रयोग में "निरपेक्षनयोमिथ्या' भी कहा है। जबकि कुछ लोग निश्चयनय का निरपेक्ष रूप से प्रयोग कर रहे हैं। सोचना यह भी होगा कि ऐसे एकान्तवादियों के कथनानुसार यदि आचार्य को व्यवहरनय सर्वथा असत्यार्थ इष्ट होता तो वे कदापि ऐसे असत्यार्थ व्यवहार नय से भेद-रूप में दर्शाए गए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र के सेवन का उपदेश साधु को नहीं देते। उन्होंने कहा है "दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्याणि साहुणा णिच्वं ।।" -(साधु को नित्य ही दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करना चाहिए।) व्यवहार नय को असत्यार्थ बताने की जगह वे मात्र इतना ही कहते-- 'ण वि णाणं ण चरितं ण दंसणो जाणगो सुद्धो।" -(ज्ञायक शुद्ध है उसके दर्शन-ज्ञान-चारित्र कुछ भी नहीं है।) परन्तु उन्होंने मात्र एक को ही न कहकर व्यवहार-निश्चय दोनों
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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