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श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ पर्वत) पर पटना हाईकोर्ट की रांची वंच का फैसला
अपने ऐतिहासिक फैसले १.७.६७ में न्यायमूर्ति श्री प्रसन्नकुमार देव ने व्यवस्था दी कि पारसनाथ पर्वत के पवित्र तीर्थ पर किसी एक ट्रस्ट अथवा समाज के किसी वर्ग का एकाधिकार नहीं है बल्कि यह तीर्थ समूचे जैन समाज का है। विद्वान जज ने मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैन समाज की प्रतिनिधि फर्म आनन्दजी कल्याणजी अहमदाबाद के स्वामित्व एवं प्रबंधन के सभी दावे खारिज कर दिए।
जज महादेय ने दिगम्बर जैन यात्रियों की उस मांग को न्यायोचित ठहराया जिसमें यात्रियों की सुविधार्थ पर्वत पर धर्मशाला आदि का निर्माण किया जाना आवश्यक बताया गया था। विद्वान न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि इन कार्यों में मदद करना बिहार सरकार का दायित्व
विद्वान न्यायमूर्ति ने बिहार सरकार और आनन्दजी कल्याणजी के बीच हुए 1965 के अनुबंध को अवैध घोषित कर व्यवस्था दी कि बिहार में जमींदारी कानून लागू होनेसे यह पर्वत बिहार सरकार में निहित हो गया इस प्रकार मूर्तिपूजक श्वेताम्बर समाज/आनन्दजी कल्याणजी के मालिकाने हक के सभी दावे निरस्त हो गए। जज महोदय ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि पर्वत पर सभी धर्म-आयतन जैन समाज के आधीन ही रहेंगे। उन्होंने प्रवीकाँसिल के उस फैसले का विशेष उल्लेख किया जिसके अनुसार प्राचीन सभी 21 टोंके (20 तीर्थंकरों की + एक गौतम गणधर की) दिगम्बर आम्नाय की हैं और चार नई टोंके (आदिनाथ, वासुपूज्य, नेमनाथ व महावीर स्वामी व जल मंदिर श्वेताम्बर आम्नाय का है।
क्रमशः आवरण तीन पर