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अनेकान्त/25 9. क्रीततर-क्रीत दोष द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का होता है। इन दोनों के भी पुनः दो भेद है-स्व व पर। संयमी के मिक्षार्थ प्रवेश करने पर गाय आदि देकर बदले में भोजन लेकर साधु को देना द्रव्य क्रीत है तथा प्रज्ञप्ति आदि विद्या या चेटकादि मन्त्रों के बदले मे आहार लेकर साधु को देना भावक्रीत दोष है।
10. प्रामृष्य-ओदन आदि भोजन तथा रोटी आदि वस्तु को कर्जरूप मे दूसरे के यहाँ से लाकर देना प्रामृष्य दोष है। इसे लघु ऋण भी कहा जाता है। इसके दो भेद हैं-व्याज सहित और व्याज रहित।
इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम करना पड़ता है। अत: यह दोष है। अनगार धर्मामृत में कहा है-अन्य जन से जब अन्न आदि उधार लिया जाता है तो माप कर लिया जाता है, इसी से इस दोष को प्रामिष्य कहते हैं।
11. परावर्त-संयत मुनियों को देने के लिए ब्रीहि के भात को देकर उससे शालि के भात आदि को लाना परावर्त दोष है। अर्थात् रोटी आदि को देकर साधु के हेतु जो शालि का भात लाया जाता है। यह परिवर्त (परावर्त) दोष है।।
____ 12. अभिघट-पंक्ति रहित घरों से लाया गया भोजन मुनि के लिए अभिघट दोष से युक्त है। क्योंकि जहाँ कहीं से आने में ईर्यापथ शुद्धि नहीं रहती है। देशाभिघट और सर्वाभिघट के भेद से यह दो प्रकार का है। इनमें से देशाभिघट आचिन्न और अनाचिन्न के भेद से दो प्रकार का है। सरल पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आई हुई वस्तु आचिन्न (ग्रहण के योग्य) है, तथा तीन या सात घरों के अतिरिक्त घरों से आयी वस्तु अनाचिन्न (ग्रहण के अयोगय) है।
सर्वाभिघट दोष स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश और परदेश की अपेक्षा से चार प्रकार का है। पूर्व और ऊपर मुहल्ले से वस्तु का लाना प्रथम स्वग्राम नामक सर्वाभिघट दोष है। इसी प्रकार शेष तीन भी जान लेना चाहिए। अर्थात् परग्राम से लाकर स्वग्राम में देना, स्वदेश से स्वग्राम में, परदेश से लाकर स्वग्राम अथवा स्वदेश मे देना।
13. उद्भिन्न-ढके हुए अथवा लाख आदि से बन्द हुए औषधि , घी, शक्कर आदि को उन्हें उसी समय खोलकर देना उभिन्न दोष है।
14. मालारोहण-नसेनी अर्थात् काठ की सीढ़ी के द्वारा चढ़कर रखी हुई पुआ, मंडक, लडडू आदि वस्तु को लाकर देना मालारोहण नामक दोष हैं।
15. आछेद्य-संयत को भिक्षा के लिए आते देखकर राजा या चोर आदि 1. कीदयडं पुण दुविहं दबं भावं च सगपर दुविहं।
सच्चितादी दव्य विज्जामंतादि मावं च ।। मु. आ. गा. 435 2. मू. आ. गा. 436, 3. अं. धर्मा. 5/14 4. बीहीकूरादिहि य सालीकूरादिय तु ज गाहिद।
दातुमिति सजदाणं परियट्ट होदि णायव्यं ।। मू. आ. गा. 437 5. मू. आ. गा. 438-440 वृत्ति सहित. 6. मू. आ. गा. 441 अं. धर्मा 5/16. 7. मू. आ. गा. 442