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________________ अनेकान्त/22 आहारादिक ग्रहण करना चाहिए। प्रवचनसार के अनसुार समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित आहार ही ग्रहण करने योग्य है ।2 टूटे या फूटे करछुल आदि से दिया गया आहार नहीं लेना चाहिए। मांस, मधु, मक्खन, बिना कटा फल, मूल, पत्र अंकुरित तथा कन्द तथा इनसे जो भोजन छू गया हो, ऐसा भोजन साधु को कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। जिस भोजन का रूप, रस, गन्ध बिगड गया हो, दुर्गन्ध युक्त, फफूंदीयुक्त, पुराना तथा जीव-जन्तुओं से युक्त भोजन किसी को नहीं देना चाहिए, न स्वयम् खाना चाहिए और न छूना चाहिए। जो भोजन उद्गम उत्पादन और एषणा दोषों से युक्त है, उसे नहीं खाना चाहिए। साधु को द्रव्य व भाव दोनों से प्रासुक वस्तु आहार में ग्रहण करनी चाहिए। जिस द्रव्य से जीव निकल गया है, वह द्रव्य प्रासुक है। प्रासुक बना होने पर भी यदि वह अपने लिए बना है तो अशुद्ध है जैसे-मछलियों के लिए जल में मादक वस्तु डालने से मछलियाँ ही विहल होती हैं, मेढक नहीं। इसीलिए पर के लिए बनाये गये भोजन आदि में ग्रहण करते हुए मुनि विशुद्ध रहते हैं अर्थात अध कर्म आदि से दूषित नहीं होते, किन्तु अधःकर्म की ओर प्रवृत्ति वाले मुनि प्रासुक द्रव्य के ग्रहण करने पर भी कर्मबन्ध ग्रहण कर लेते है और शुद्ध आहार मिल जाता है तो वह आहार भी उनके लिए शुद्ध ही है। अनगार धर्मामृत में इसी के समान भाव को इस प्रकार कहा है-द्रव्य से शुद्ध भी भोजन यदि भाव से अशुद्ध है तो वह भोजन अशुद्ध ही है, क्योंकि अशुद्ध भाव बन्ध के लिए और शुद्ध भाव मोक्ष के लिए होते हैं, यह निश्चित हैं। अतएव द्रव्य और भाव दोनों से ही शुद्ध भोजन मुनि को ग्रहण करना चाहिए। जो अत्यन्त गरिष्ठ आहार है, इसको ग्रहण करना योग्य नहीं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। जो नर उसका त्याग करते हैं वे धन्य हैं। अतः इन्द्रियरूपी वीरों को यदि इष्ट, मिष्ट और अत्यन्त स्वादिष्ट आहार से अत्यधिक शक्तिशाली बना दिया जाता है, तो मन को बाह्य पदार्थों में अपनी इच्छानुसार भ्रमण कराती है अर्थात् साधु का भोजन इतना सात्विक होना चाहिए जिससे शरीर रूप गाडी तो चलती रहे किन्तु इन्द्रियाँ बलवान न हो सके । अतएवं मध्यम मार्ग को अपनाकर जिससे इन्द्रियाँ वश में हों और कुमार्ग की ओर न जायें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। 1. भ. आ.गा. 423 की वि. पृ. 326, 2. समस्त हिसासायतनशन्य एवाहारो युक्ताहार । प्रवचनसार ___गा. 229, 3 म. आ. गा. 1200 की वि., 4. मू. आ. गा. 485 - 486 5 आधाकम्मपरिणदो फासुगदब्वेवि बंधाओं भणिओ। सुद्ध गये समाणों आधाकम्मेवि सो सुद्धो ।।मू. आ.।।गा. 487 6. द्रव्यतः शुद्धभप्यन्नं भावाशुद्धया प्रदूष्यते। __ भावो शुद्धो बन्धाय शुद्धोमोक्षाव निश्चितः । 15/67 | अ.धर्मा. 7 क्रिया कोश, श्लोक 982 8. इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारेरूभटीकृता.। यथेष्टामिन्द्रियभटा भ्रमयन्ति बहिर्मनः।17/1011 अ. धर्मा.
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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