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________________ अनेकान्त/13 है अतः साध्य सिद्धि के पूर्व साधनों को दुकराना या उनसे घृणा करना भ्रम जनित अज्ञानता ही कह लायेगी। जैन दर्शन के सुप्रसिद्ध व्याख्याता तार्किकचक्र चूड़ामणि आचार्य प्रवर स्वामी समंतभद्र जिनस्तवन करते हुए लिखते हैं न पूजयार्थस्त्वायि वीतरागे न निंदया नाथ ! विवांत वैरे। तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।। -बृहत्स्वयंभूस्तोत्र अर्थात् हे भगवान् ! आपको न तो हमारी पूजा से कोई प्रयोजन है :- क्योंकि आप वीतराग हैं और न निंदा से ही कोई द्वेष है क्योंकि आपने वैर भाव को समूल नष्ट कर दिया है। फिर भी चूँकि आपके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे मन के विकारों को नष्ट कर हृदय में वीतरागता का संचार करता है अतः आपकी पूजा हमें अभीष्ट फलदायक होने से विधेय होकर आत्म विशुद्धि का निर्मल स्रोत भी स्वयं सिद्ध हो जाता है। यदि भगवत्भक्ति संसार परिभ्रमण और केवल बंध का ही कारण होती तो इसे तीर्थकर अपनी मुनि दशा मे स्वयं षडावश्यकों के रूप में प्रतिदिन सिद्ध वंदना न करते और उनकी स्तुति भी न करते। तथा न श्रावकों व अन्य श्रमणों को भी अनिवार्य रूप में प्रतिदिन सम्पन्न करने का विधान करते । यह अवश्य है कि मुनिराज के शुद्धोपयोगी बन जाने पर उनके पुण्य-पापमयी शुभ व अशुभ उपयोग और क्रियाएँ स्वयं छूट जाती हैं; किन्तु आज जबकि शुद्धोपयोग तो दूर शुभोपयोग में रहना भी प्रायः कठिन हो रहा है-शुभोपयोग एवं पुण्यक्रियाओं को पापलिप्त संसारी जनों के लिए हेय बताकर उनसे दूर रहने का उपदेश देना एक प्रकार सर्व साधारणजनों को धर्म मार्ग से वंचित और दूर कर देना है जो आत्म वंचना के सिवाय परवंचना भी है। किसे कब क्या हेय और उपादेय है? वह व्यक्ति की योग्यता एवं द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति पर निर्भर है- जो व्यक्ति पुण्य के द्वारा साधक दशा में शुद्धोपयोगी बनने का पात्र बनता है उससे प्रारंभ में ही घृणा करा देना और हेय बताकर पापों के समान उससे दूर रहने की शिक्षा लाभदायक नहीं हो सकती। जैसे समुद्र में डूबने वाले व्यक्ति को नौका उपादेय और उसमें बैठकर किनारे लग जाने पर वह अनावश्यक होने से छूट जाती है उसी प्रकार शुभोपयोगी धर्म क्रियाएँ नौका के समान होकर शुद्धोपयोगी बन जाने पर अनुपयोगी हो जाने से छूट जाती हैं। यदि डूबने वाला किनारे लग जाने के पूर्व ही नौका को हेय जान उसका सहारा न लेगा तो किनारे
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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