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अनेकान्त / ३२
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति मित्रता भाव रखना, रोगी व्यक्तियो में करुणा का भाव, साध्य रोगों मे प्रेमपूर्वक चिकित्सा करने की भावना और असाध्य रोग या रोगी मे उपेक्षावृत्ति, वैद्य में ये चार वृत्तियाँ होना चाहिये ।
उपर्युक्त उद्धरणो से स्पष्ट है कि आयुर्वेद में किस प्रकार प्राणियों के कल्याण के प्रति स्थान-स्थान पर वैद्यों को निर्देश दिया गया है। मानव जीवन की सार्थकता का प्रतिपादन जिस सहज भावपूर्वक किया गया है उससे आयुर्वेद की आध्यत्मिकता का आभास सहज ही हो जाता है। जैन धर्म
इन्हीं मूल्यो की स्थापना पूर्णत शुद्धरूपेण आध्यात्मिक धरातल पर की गई है और भौतिक द्रव्यो के प्रति राग-द्वेष भाव के समूल नाश का उद्घोष किया गया है । अत. यह मानना समयोचित एव युक्ति युक्त होगा कि आदर्श साम्य के कारण तथा कतिपय महत्वपूर्ण आयुर्वेदीय सिद्धान्तों को जैन धर्म एवं सस्कृति का समर्थन होने के कारण ज्योतिष, कला आदि विद्याओं की भांति जैनधर्म में आयुर्वेद का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि आयुर्वेद का अपना क्षेत्र और सीमाएं सर्वथा अलग एवं भिन्न हैं, तथापि कई बातो में समानता होने से साहित्य निर्माण के क्षेत्र में अनेक जैनाचार्यों ने आयुर्वेद को अपनाया और जैन धर्माचरणपूर्वक धर्म की व्यापक परिधि में आयुर्वेद के अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ रत्नो का निर्माण किया। इससे धर्म की अभिवृद्धि तो हुई ही, आयुर्वेद जगत् का भी उद्धार हुआ ।
११२९, ब्लाक-सी, पाकेट-सी, शालीमार बाग, दिल्ली-५२