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________________ अनेकान्त/२२ आधुनिक अनेक वस्तुओ के आविष्कार मे अपेक्षावाद या स्याद्वाद की रीति से ही वस्तुतत्वों का परीक्षण होता है, प्रयोग होता है, आविष्कार होता है। अत. स्याद्वाद भौतिक आविष्कारो का भी एक प्रबल माध्यम है। स्याद्वाद को जैन दर्शन मे लोक व्यवहार का नेता कहा गया है जो निम्न उद्धरण से सष्ट है जेण विणा लोगस्सति ववहारो सव्वहान निव्वडई। तस्स भुवणेक्क गुरु णो णमो अणेगंत वायस्स।। -सन्मति तर्क ३/६८ वस्तुत यह सिद्धान्त सुव्यवस्थित और लोकमान्य है। यह अनन्त धर्मात्मक वस्तु की विभिन्न दृष्टिकोणों से व्यवस्था करता है तथा उस व्यवस्था में किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में विधि और निषेध, सामान्य और विशेष द्रव्य और पर्याय आदि प्रकार से दो मर्यादाएँ पाई जाती है। इन्ही दो मर्यादाओ के कारण वस्तु अर्थ क्रियाकारी होती है। वस्तु की अर्थ क्रियाकारिता में ही सार्थकता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी का पूरा स्तोत्र साहित्य स्याद्वाद सिद्धान्त का उद्भावक है। उनकी समग्र प्रस्तुति आलेख के माध्यम से प्रस्तुत करना असभव है, किन्तु संक्षिप्त में निदर्शन कर प्रस्तुत किया गया है। यह भी निश्चित है कि स्याद्वाद वस्तु तत्त्व के निरूपण की तर्कसगत और विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। इसमें सन्देह या संशय के लिए अवकाश नहीं है। निश्चित अपेक्षा से निश्चित धर्म का प्रतिपादन करने वाला सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है। प्राध्यापक दि. जैन कालिज बड़ौत
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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