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अनेकान्त/१९
एक ही द्रव्य किस तरह सप्तभग रूप होता है? ऐसा प्रश्न होने पर उसका समाधान करते है-जैसे देवदत्त नाम का पुरुष एक ही है, वही मुख्य
और गौण की अपेक्षा से बहुत प्रकार है सो इस तरह है- वही देवदत्त अपने पुत्र की अपेक्षा पिता कहा जाता है, वही पिता की अपेक्षा पुत्र कहा जाता है, मामा की अपेक्षा भानजा कहा जाता है, वही अपने भानजे की अपेक्षा मामा कहा जाता है, अपनी स्त्री की अपेक्षा पति कहा जाता है, अपनी बहन की अपेक्षा भाई कहा जाता है, अपने शत्रु की अपेक्षा शत्रु कहा जाता है, अपने इष्ट की अपेक्षा मित्र कहा जाता है इत्यादि एक ही द्रव्य मुख्य और गौण की अपेक्षा सप्तभग रूप हो जाता है-इसमे कोई दोष नही है, यह सामान्य व्याख्यान है। यदि इससे सूक्ष्म व्याख्यान करे तो द्रव्य मे जो सत् एक नित्य आदि स्वभाव है उनमे से एक-एक स्वभाव के वर्णन मे सात-सात भग कहने चाहिये । वे इस तरह कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य इत्यादि या स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्यात् नित्यानित्य, स्यात् अवक्तव्य इत्यादि ।
ये प्रत्येक के सात भंग इसी देवदत्त के समान होगे। १. स्यात् पुत्र है अर्थात् अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है। २ स्यात् अपुत्र है अर्थात् अपने पिता के सिवाय अन्य की अपेक्षा पुत्र
नही है। ३ स्यात् पुत्र अपुत्र है दोनो रूप है अर्थात् अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है
और अन्य की अपेक्षा पुत्र नही है। ४ स्यात् अवक्तव्य है अर्थात् एक ही समय भिन्न-भिन्न अपेक्षा से कहे तो
यह नही कह सकते है कि पुत्र अपुत्र दो रूप है। ५ स्यात् पुत्र और अवक्तव्य है अर्थात् यह देवदत्त जब अपने पिता की
अपेक्षा पुत्र है तब ही एक समय मे कहने योग्य न होने से कि पुत्र है या अपुत्र है यह अवक्तव्य भी है।