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________________ अनेकान्त/३० आचार्य उपाध्याय साधु ध्येय - जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से सम्पन्न है तथा जिन्हें सात महाऋद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त हुई है और जो यथोक्त लक्षण के धारक है ऐसे आचार्य उपाध्याय और साधु ध्यान के योग्य है।३ निज शुद्धात्मा ध्येय – मोमरहित मूषक के अभ्यन्तर आकाश के आकार रत्नत्रयादि गुणो युक्त, अनश्वर और जीवधनदेश रूप निजात्मा का ध्यान करना चाहिए ।२४ एक-एक द्रव्य परमाणु या भावपरमाणु (आत्मा की निर्विकल्प अवस्था) मे चित्तवृत्ति को केन्द्रिय करना ध्यान है।५ मन वचन के अगोचर शुद्धात्म तत्त्व ध्येय है।६ तीन लोक के नाथ अमूर्तिक परमेश्वर परमात्मा अविनाशी का ही साक्षात् ध्यान प्रारम्भ करे। शक्ति और व्यक्ति की विवक्षा से तीन काल के गोचर साक्षात् सामान्य (द्रव्यार्थिक) नये से एक परमात्मा का ध्यान व अभ्यास करे।२७ शुद्ध पारिमाणिक भाव ध्येय - जो शुद्ध द्रव्य की शक्ति रूप शुद्ध परम पारिमाणिक भाव रूप परमनिश्चय मोक्ष है, वह तो जीव मे पहले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी ऐसा नही है। रागदि विकल्पो से रहित मोक्ष का कारणभूत ध्यान भावना पर्याय मे वही मोक्ष (त्रिकालादिरुपाधि शुद्धात्म स्वरूप) ध्येय होता है।८ रत्नत्रय व वैराग्य की भावनायें ध्येय – भले प्रकार प्रयुक्त किये हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनो की एकता से मोक्षरूपी लक्ष्मी उसे रत्नत्रययुक्त आत्मा को स्वय दृढालिगन देती है। इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से ही जीवो की नाना प्रकार की कर्मवान् बेड़ियाँ टूटती है।२९ जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है, वह पुरुष ही भावनाओ द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है और वे भावनाएँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती है। ध्येय के गुण-दोष – चारो ध्यानो मे से पहले के दो अर्थात् आर्त्त और रौद्र ध्यान छोड़ने के योग्य है तथा आगे के दो अर्थात् धर्म और शुक्ल ध्यान मुनियो के ग्रहण करने योग्य है।३१ जीवो के अप्रशस्त ध्यान आर्त्त और रौद्र भेद से दो प्रकार का है तथा प्रशस्त ध्यान भी धर्म और शुक्ल भेद से दो प्रकार का कहा गया है। उक्त ध्यानो मे आर्त्त और रौद्र नाम वाले दो जो अप्रशस्त ध्यान है वे तो अत्यन्त दु ख देने वाले है और दूसरे धर्म, शुक्ल नाम के दो प्रशस्त ध्यान है वे कर्मो को निर्मूल करने मे समर्थ है।३२ योगी मुनियो को चाहिए कि असमीचीन ध्यानो को कौतुक से स्वप्न मे भी न विचारे, क्योकि असमीचीन ध्यान सन्मार्ग की हानि के लिए बीज-स्वरूप है। खोटे ध्यान के कारण सन्मार्ग से विचलित हुए चित्त को फिर सैकड़ो वर्षों मे भी कोई सन्मार्ग मे लाने को समर्थ नही हो सकता, इस कारण खोटा ध्यान कदापि नहीं करना चाहिए । ३ जो पुरुष खोटे ध्यान के उत्कृष्ट प्रपञ्चो का विस्तार करने मे चतुर है, वे इस लोक मे राग रूप अग्नि से प्रज्वलित होकर मुद्रा, मण्डल, यन्त्र, मन्त्र
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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