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________________ अनेकान्त/२८ ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप डॉ० सगीता सिंघल ध्यान का लक्षण - जिसे मोह और राग-द्वेष नही है तथा मन-वचन-काय रूप योगो के प्रति उपेक्षा है उसे शुभाशुभ को जानने वाली ध्यानमय अग्नि प्रकट होती है।' तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार उत्तम सहनन वाले का एक विषय मे चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अनन्तमुहुर्तकाल तक होता है। आ० समन्तभद्र कहते है कि इस ध्यान के लक्षण मे जो एकाग्र का ग्रहण है वह व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिए है। ज्ञान ही वस्तुत व्यग्र होता है, ध्यान नही। ध्यान को तो एकाग्र कहा जाता है। आचार्य पूज्यपाद ने चित्त के विक्षेप का त्याग करने को ध्यान कहा है। ज्ञानार्णव मे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मुक्ति का कारण कहा गया है। अतएव जो मुक्ति की इच्छा करते है, वे इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से ही मोक्ष को प्रकटतया साधते है। उत्कृष्ट है काय का बध अर्थात् सहनन जिसके ऐसे साधु का अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त एकाग्र चिन्ता के रोधने को ध्यान कहते है। जो एक चिन्ता का निरोध है - एक ज्ञेय मे ठहरा हुआ है वह तो ध्यान है और इससे भिन्न है सो भावना है उसे अनुप्रेक्षा अथवा अर्थचिन्ता भी कहते है। अनगार धर्मामृत के अनुसार इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है उस चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते है। पञ्चाध्यायी मे कहा है कि किसी एक विषय मे निरन्तर रूप से ज्ञान का रहना ध्यान है और वह वास्तव मे क्रम रूप ही है, अक्रम नही। योगदर्शन के अनुसार ध्येय वस्तु मे चित्तवृत्ति की एकतानता का नाम ध्यान है ।१० ध्येय के भेद - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार प्रकार का ध्येय समस्त तथा व्यस्त दोनो रूप मे ध्यान के योग्य माना गया है। इस प्रकार नाम आदि भेद से ध्येय चार प्रकार का कहा गया है अथवा द्रव्य और भाव के भेद से वह दो प्रकार का ही अवस्थित है।११ नाम व स्थापना रूप ध्येय - वाच्य का जो वाचक शब्द है वह नाम रूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना मानी गयी है।
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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