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________________ अनेकान्त/१९ पूजा मूलत एक व्यक्तिगत प्रयास है चाहे वह सामूहिक रूप से ही क्यो न हो। यह प्रक्रिया ऐसे लोगो के लिए या कहिए श्रावको के लिए प्रभुत्व प्राप्त करने की सरल साधना है जिसके द्वारा भी आत्मा परमात्मा से साक्षात्कार व तादात्म्य स्थापित कर सके, क्योकि लौकिक या भौतिक लब्धिया जीवन का चरम ध्येय नही है। कवि इकबाल के शब्दो मे सितारों से आगे जहाँ और भी हैं, इसी रोजोशब में उलझ कर न रह जा, तेरे जमीन ओ मकां और भी हैं' उस अतिम मुकाम पर जाने के लिए क्या करे? उसके लिए पूजा का सोपान भी है। यह तो हुई पूजन की दार्शनिक पृष्ठभूमि । अब जरा पूजा की विधि आदि पर एक नजर डाली जाए। पूजा निर्विघ्न रहे इसके लिए प० आशाधर की सलाह है कि यथास्वं दानमानाद्यैः सुखीकृत्य विधर्मिणः। स्वधर्मण : स्वसात्कृत्य सिद्ध्यर्थी यजतां जिनम्।। (सिद्धि के इच्छुक को अन्य धर्मावलम्बियो को यथा योग्य दान सम्मान आदि के द्वारा अनुकूल बनाकर साधर्मियो को साथ मे लेकर जिन की पूजा करनी चाहिए।) पूजा के आरम्भ करने से पहले स्वस्ति व मगल वाचन किया जाता है। समस्त तीर्थकरो और साधुओ से प्रार्थना की जाती है कि जैनेन्द्र-यज्ञ-विशेष की सारी प्रक्रिया के समय सारे विघ्न समूह नष्ट हो । स्वस्ति मगल के बाद विधिपूर्वक पूजा प्रारम्भ की जाय । आजकल नवीन कवियो ने नई नई पूजाए रचकर पूजा की विधि मे भी यत् किचित फेर बदल कर दिए है और नए-नए सुझाव देने लगे है। पूजा के कई सग्रह भी मिलने लगे है। साधारणतया चाहे वे मूर्ति रूप मे समक्ष हो या नही, सिद्धो, अर्हतो, तीर्थकरो, गुरुओ, जिनवाणी, जिनबिबो या चैत्यो, सोलहकारण भावनाओ, धर्म के लक्षणो की या अन्य आराध्य की पूजा का प्रारम्भ करते समय एक पात्र का प्रयोग करते है। जिसमे स्वस्तिक ॐ आदि लिख कर आराध्य से कहते है - ॐ ह्री अत्र अवतर अवतर संवौषट् (ॐ ह्री यहाँ आइए, आइए, सवौषट्) ॐ ह्री अत्र तिष्ठ तिष्ट ठः ठः ठः (ॐ ह्री यहाँ बैठिए, बैठिए, ठ ठ ठ) ॐ ह्री अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (ॐ ह्री मेरे समीपस्थ होइए होइए वषट्)
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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