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________________ अनेकान्त ! वर्ष ४६ किरण-३-४ वीर सेवा मंदिर, २१ दरियागज, नई दिल्ली-२ वी.नि.सं. २५२२ वि.सं. २०५३ जुलाई-दिसंबर | १६६६ सम्बोधन कहा परदेसी को पतियारो। मन मानै तब चलै पंथ कों, सॉझि गिनै न सकारो। सबै कुटुम्ब छाँडि, इतही, पुनि त्यागि चलै तन प्यारो।।१।। दूर दिसावर चलत आपही, कोउ न राखन हारो। कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो।।२।। धन सौं रुचि धरमसों भूलत, झूलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनंत गमायो, पायो नहिं भव पारो।।३।। साँचे सुख सौं विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे "भैया', आप ही आप संभारो।।४।। कहा परदेसी को पतियारो।। गरब नहिं कीजै रे ए नर निपट गँवार। झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे। कै छिन साँझ सुहागरू जोबन, के दिन जग में जीजै रे।। बेगहि चेत विलम्ब तजो नर, बंध बढ़े थिति कीजै रे। 'भूधर' पल-पल हो है भारी, ज्यों-ज्यों कमरी भीजै रे।।
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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