________________
अनेकान्त/4 इसकी अक्षरात्मकता को व्यक्त करती है। यह देशना सर्वभाषात्मक होती है, यह अठारह भाषा और सात सौ लघुभाषाओं का समग्र रूप होता है जिससे यह सभी प्राणियों के बोध गम्य होती है। अनेक भाषाओं में परिणमन करने की क्षमता तथा मुख्यत. मगध में देशित होने के कारण समवायांग20) काव्यानुशासन, औपपातिक सूत्र, महापुराण आदि ग्रथों में इसे अर्धमागधी कहा गया है। इसका मूल उत्पत्ति स्थान मगध (पूर्व) और शूरसेन (मथुरा पश्चिम) क्षेत्रों का मध्यवर्ती प्रदेश है जहाँ जैनों के अधिकांश तीर्थंकरो की जन्मस्थली एवं कर्मस्थली रही है। भ ऋषभदेव का उपदेश भी अर्ध मागधी मे माना जाता है। अतः कौशल के अयोध्या की भाषा भी अर्ध मागधी क्षेत्र में समाहित होती है। वस्तुत: तीर्थकरों के अनेक क्षेत्रों में विहार के कारण उनकी मागधी भाषा मे अनेक उप-भाषाओं के शब्दों का संमिश्रण हुआ होगा जिनमें विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रभाव भी सम्मिलित है। यह 'अरिया' के 'अरिहा' के रूप में परिवर्तित होने से स्पष्ट है। इसीलिए यह प्राकृत भाषा जन सामान्य के लिए बोधगम्य मानी जाती रही है। फलत:
अर्धमागधी = मागधी+शौरसेनी + अन्य भाषाएँ। इसीलिए इसमें अनेक प्राकृत जन-भाषाओं के लक्षण और शब्द पाए जाते हैं। इनका विवरण बालचन्द्र शास्त्री ने दिया है। फलतः इसे किसी एक विशिष्ट भाषा के नाम से सबोधित नहीं किया जा सकता। अर्ध मागधी भाषा का स्वरूप : कथ्य भाषा-प्राकृत भाषा)
इस भाषा के संबंध में अनेक स्वदेशी और विदेशी भाषा विज्ञानियों ने विचार किया है। सभी का मत है कि सामान्यत भाषा दो प्रकार की होती है- (i) कथ्य जन भाषा और (ii) साहित्यिक भाषा । जब कोई जन बोली बृहत्समुदाय के द्वारा या राजनीतिक रूप से मान्य होती है तब वह भाषा कहलाती है। जब उस भाषा के माध्यम से साहित्य निर्माण होने लगता है, तब वही भाषा साहित्यिक भाषा बन जाती है। इसका स्वरूप जन बोली और भाषा से किंचित् परिष्कृत हो जाता है। प्रारम्भ में सभी भाषाएं जन-बोलियो के रूप मे कथ्य रूप में ही पाई जाती हैं और उनका कोई साहित्य भी नहीं होता। लेकिन उनके अनेक परवर्ती रूप साहित्य में पाए जाते है। इन रूपों के आधार पर ही जन भाषाओं का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। इन जन भाषाओं का कोई व्याकरण भी नहीं होता। इन्हें ही 'प्राकृत भाषा' कहा जाता है। हमारे तीर्थकरों ने इसी प्रकार की कथ्य जनभाषा में-प्राकृत भाषा मे देशनाए दी थीं। उनकी भाषा साहित्यिक नहीं थी, नहीं तो वह सर्वजन बोधगम्य कैसे हो सकती थी?
नमिसाधु ने इस प्राकृत की परिभाषा ही व्याकरणादि संस्कारों से रहित वचन व्यापार के रूप में की है। इस वचन व्यापार की भाषा ही प्राकृत भाषा है। उनके अनुसार अर्धमागधी भाषा ही 'प्राकृत भाषा' है जो देश-काल भेदों में समाहरित-सस्कारित होती हुई भिन्न-भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। इसके प्रत्येक रूप क्षेत्र-विशेष मे सीमित होते हैं जिनके आधार पर इनकी संज्ञा होती है- मुण्डा, गोडी, मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि। इसी आधार पर कोशकार आप्टे 15 ने