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अनेकान्त/27 अत्एव श्रुनज्ञान की उपासना का फल केवलज्ञान की प्राप्ति और तज्जन्य मुक्ति ही है। जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमल से निःसृत पूर्वापर विरोध हीन वचनों को आगम या श्रुत कहते हैं। चारों अनुयोग द्रव्यश्रुत रूप हैं, अतः सम्यग्ज्ञान में उनकी उपयोगिता असंदिग्ध है। समाधिभक्ति में 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः कहकर चारों की समवेत, महत्ता स्वीकार की गई है। जहां कहीं किसी एक अनुयोग को महत्त्वपूर्ण कहा गया है, वहां सापेक्ष कथन है अतः जैन साहित्य के अध्येताओं एवं अनुसन्धत्सिओं को अनुयोग व्यवस्था ध्यान में रखकर क्रमशः अध्ययन करना अपेक्षित है तथा परम्परा से शास्त्रों का अर्थ करना अपेक्षित है। अन्यथा उनके द्वारा शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करके वह शस्त्र बन सकता है। कहा भी गया है
__ 'शास्त्रग्नों मणिवद् भव्यो विशुद्धो भाति निर्वृत :।
अंगारवत् खलो दीप्तो मलो वा भस्म वा भवेत् ।। अर्थात् इस शास्त्र रूपी अग्नि में तपकर भव्य जीव मणि के समान विशुद्ध होकर सुशोभित होता है और दुष्ट व्यक्ति अंगार के समान दीप्त होता है अथवा कालिमा या राख बन जाता है।
(1) प्रथमानुयोग-- भावश्रुतज्ञान के आधारभूत द्रव्यश्रुतके प्रथम भेद प्रथमानुयोग का लक्षण समन्तभद्राचार्य ने लिखा है
__ "प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोध समीचीन :।। अर्थात् जो सम्यग्ज्ञान या श्रुतज्ञान चरित एवं पुराणों को जानता है, उस पुण्यवर्धक, बोधि एवं समाधि के निधान को प्रथमानुयोग कहा गया है। यह प्रथमानुयोग परमार्थ का निरूपक है। इस श्लोक में प्रयुक्त अर्थाख्यान, पुण्य और बोधिसमाधिनिधान पदों के हार्द को स्पष्ट करते हुए टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि यह प्रथमानुयोग परमार्थ विषय का प्रतिपादन करने वाला होने से अर्थाख्यान, तथा पुण्य का हेतु होने से पुण्य कहा गया है। अप्राप्त रत्नत्रय की प्राप्ति रूप बोधि तथा प्राप्त रत्नत्रय की पूर्णता रूप समाधि अथवा धर्म्य एवं शुक्ल ध्यान रूप समाधि को प्राप्त कराने वाला होने से प्रथमानुयोग को बोधिसमाधिनिधान कहा गया है।
प्रथम शब्द के दो अर्थ हैं प्रधान और प्रारंभिक । प्रथमानुयोग में ये दोनों ही अर्थ अभीष्ट हैं। यत यह श्रुतज्ञान (जिनवाणी) का एक प्रधान अंग है, अत प्रथमानुयोग कहा गया है तथा यह प्रथम अवस्था (मिथ्यात्व गुणस्थान) के जीवो के लिए भी महान् उपकारी है, अतः प्रथमानुयोग कहा गया है। जिनसेनाचार्य के अनुसार इस अनुयोग में पाच हजार पद है तथा इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों के पुराण का वर्णन है। सभी भारतीय दार्शानिकों ने वस्तु के प्रामाण्य के ज्ञान के लिए भी प्रमाण की आवश्यकता मानी है, भले ही किसी ने उसे स्वतः किसी ने परतः अथवा किसी ने स्वत एवं परत दोनों को सापेक्ष स्वीकार किया है। तीर्थंकरों की एवं उनकी वाणी की प्रामाणिकता का ज्ञान प्रथमानुयोग के बिना नहीं हो सकता है। क्योंकि, तीर्थकरों का चरित, काल एवं उनका उपदेश आदि प्रथमानुयोग में ही वर्णित है।