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________________ सांख्य योग दर्शन में प्रतिपादित अहिंसा पर जैन दर्शन का प्रभाव –डा जय कुमार जैन, मु नगर साल्य दर्शन लौकिक उपायों के समान ही वैदिक कर्मकाण्ड को अकिञ्चित्कर स्वीकार करता है। उनका अनुसार अदृष्ट फल के साधक यज्ञादि की क्षय, अतिशय एव हिसाजन्य अविशुद्धि से युक्त है। ईश्वरकष्ण ने कहा है 'दृष्टिवदानुश्रविक. स हयाविशुद्धिक्षयातिशययुक्त.।।' 1 वैदिक परम्परा म पशुयाग को श्रुतिसम्मत हाने से कर्तव्य कर्म के अन्तर्गत परिगणित किया गया है और यह माना गया है कि याग मे हिसित पशु पशुभाव को छोडकर मनुष्य भाव के प्राप्ति के बिना ही सद्य देवत्व को प्राप्त कर लेता है। अत यजमान एव पशु दानो की दृष्टि से यागानुष्ठान की उपादेयता मानी गई है। परनतु साख्य दार्शनिको का कथन है कि याग मे पशु हिंसा कर्म से पशु को प्राणवियोग रूप असहनीय क्लेश सहना पड़ता है। अत हिसा होने से पुण्य की समग्रता नही रहती है ।2 भागवन के साथ साख्य के प्रगाढ सम्बन्धो का प्रमुख आधार अहिसा ही है। योग दर्शन मे मन-वचन-काय से क्रमश अनिष्टचिन्तन, परुषभाषण तथा ताडन आदि के द्वारा किसी प्राणी को पीडा पहुचाना हिसा कहा गया है। योगसूत्र के व्यासभाष्य मे हिसा की कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से त्रिविधता मानकर लोभजन्य, क्रोधजन्य एव बलिदान जन्य भेद किये गये है । इसके विपरीत सर्वप्रकार से सर्वकाल में किसी प्राणी को पीडा न पहुंचाने रूप अद्रोह को अहिसा कहा गया साख्य योग की दृष्टि मे समस्त यम-नियमो मे अहिंसा ही प्रमुखतया सार्वभौम धर्म स्वीकार किया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का अहिसा से पारस्परिक विरोध के अवसर पर अहिसा की मुख्यता मानी गई है। समस्त यम-नियम अहिंसामूलक है तथा उनका प्रतिपादन अहिसा की विशुद्धि के अभिप्राय से किया गया है 15 व्यासभाष्य मे सत्य की विवेचना करते हुए स्पष्टत लिखा है"एषा सर्वभूतोपकारार्थे प्रवृत्ता। न भूतोपघाताय। यदि चैवमप्पाभिधीयमाना भूतोपघातपरैव स्यान्न सत्यं भवेत्, पापमेव भवेत् । तेन पुण्याभासेन पुण्यप्रतिरूपकेण
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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