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________________ अनेकान्त / 25 क्षण सुभौम के लिए भी एक मदोन्मत्त हाथी प्रकट हो गया। उसके साथ ही एक चक्ररत्न भी उसके हाथ मे आ गया। सुभौम एक हजार आरे वाले उस चक्र को लेकर परशुराम की ओर बढा । परशुराम भी क्रुद्ध होकर उसे मारने के लिए आगे बढे । कितु आठवे चक्रवर्ती सुभौम ने परशुराम का वध कर दिया तथा उनकी सेना को अभयदान दे दिया । तदनंतर उसने भरतखंड के छहो खंडो पर राज्य किया । आचार्य जिनसेन प्रथम और आचार्य गुणभद्र द्वारा लिखित इन कथाओ मे कुछ अंतर है। इससे ऐसा ज्ञात होता है कि दोनों के सामने अलग-अलग पुराण मौजूद थे। यह भी स्मरणीय है कि दोनो आचार्यो ने स्पष्ट लिखा है कि अपने से पूर्व के आचार्यो के पुराणो के आधार पर उन्होने अपने पुराणो की रचना की है। उनसे पूर्व की मौखिक परपरा के कारण भी विवरणों मे अंतर आ जाना सभव है । अन्य भारतीय परपराओ मे भी ऐसा हुआ है। धार्मिक उथल-पुथल, आक्रमणो आदि के कारण बहुत-सा जैन साहित्य भी नष्ट हो गया । यहा केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि परशुराम सबंधी जैन परपरा भी अत्यत प्राचीन है। उसके एक अश जैन राजा सुभौम, उसकी माता का अज्ञातवास आदि तथ्यो की पुष्टि मूषकवश काव्य से भी होती है जिसके प्रारभिक सर्गो से स्पष्ट है कि उसके प्रारंभिक राजा जैन धर्मके अनुयायी थे । केरल के इतिहास के लिए यह काव्य महत्वपूर्ण है और केरल के इतिहासकार उसके कुछ भाग को ऐतिहासिक मानते है। जैन सम्राट खारवेल ने अपने हाथी गुफा शिलालेख मे जो कि लगभग 2200 वर्ष प्राचीन है, मूषकनगर का उल्लेख किया है। आचार्य हेमचंद्र (बारहवी सदी) ने भी अपने ग्रथ योगशास्त्र मे परशुराम सबधी कथा दी है। आचार्य का प्रयोजन हिसा के परिणामो को दर्शाना है। उन्होने लिखा है कि प्राणियो का घात करने से रौद्रध्यान (क्रूरतापूर्ण य क्रोधपूर्ण भाव ) के कारण सुभौम और ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्ती सातवे नरक मे गए जहा भीषण यातनाएं प्रतिक्षण सहनी पडती है । सुभौम की कथा परशुराम की कथा के अंतर्गत ऊपर दी जा चुकी है। हेमंचद्राचार्य ने सबसे पहले जमदग्निके जन्म की कहानी दी है जो कि जिनसेन प्रथम और गुणभद्राचार्य के पुराणो मे नही है। वह इस प्रकार है बसन्तपुर मे अग्निक नाम का एक अनाथ बालक रहता था। वह एक व्यापारी दल के साथ दूसरे देश के लिए निकल पडा कितु मार्ग मे वह दल से बिछुड गया और घूमते-घूमते जमद् नाम के तापस के आश्रम में पहुंचा। जमद्ने उसे अपना पुत्र मान लिया और वह जमदग्नि के नाम से प्रसिद्ध हुआ जोकि तप करते-करते तेजोराशि ही बन गया। किसी समय वैश्वानर नाम के जिनधर्मी देव और तापसभक्त धनवन्तरि मे यह विवाद हुआ कि जैन साधु और तापस दोनों में से कौन श्रेष्ठ है। वे इसकी परीक्षा के लिए निकले। उन्हें मिथिला का राजा जैन साधु के वेष में दिखाई दिया। उसने हाल ही में दीक्षा ली थी। उन दोनो ने उससे आहार ग्रहण करने की प्रार्थना की
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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