SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों के प्रति विसंगतियाँ ले पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली संपादन और संपादक परम्परित-प्राचीनतम दिगम्बर आगम प्राय सार्वजनिक प्राकृत-भाषा में निबद्ध है। उनके सपादन के लिए जब कोई अन्य व्यक्ति स्वय सन्नद्ध होता है अथवा अन्य किसी को सपादन के लिए प्रेरित करता है तब हम सोचते हैं कि जब आगमो के मूलकर्ता उनका स्वय सपादन कर चुके तब अन्य किसी को उनके संपादक गानी रापादनकर्ता बनने का अधिकार ही कहाँ? हम नहीं समझ पाए कि प्राचीनतम आगमों के नए-नए सपादक बनने की परम्परा ने कब और कैसे जन्म लिया? या किसी मूलकर्ता ने कब किसी अन्य को सपादन के लिए अधिकृत किया? हमारी समझ से वेद, आगम, कुरान, बाइबिल, गुरुग्रन्थ साहिब जैसो का सपादन नही, अपितु छायानुकरण होता है। यदि कदाचित् दुर्भाग्यवश कालान्तर मे छायानुकरणकर्ताओं की अज्ञानता या असावधानी से छायानुकरण में विभिन्न प्रतियो मे भेद पड गया हो तो वहाँ किसी एक प्रति को आदर्श मानकर अन्य प्रतियों मे उपलब्ध पाठ भेदो को यथाशक्य टिप्पण में देने की प्राचीन परम्परा है । इसके सिवाय किसी को ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं कि वह रचयिता की स्व-हस्तलिखित प्रति के बिना स्वेच्छा से किसी प्राकृत मूलपाठ का निश्चय कर सके या बदल सके । अन्यथा, पाठ में कोई परिवर्तन करने का तात्पर्य होगा कि अब तक का उपलब्ध मूल पाठ अप्रामाणिक था और अब कोई उसमे प्रामाणिकता ला रहा है.. यानी आर्ष का संशोधन कर रहा है। यदि आगमो का उपलब्ध अद्यावद्यि अशुद्ध था तो वह आगम की श्रेणी मे ही नही । यत आगम तो वेद आदि की भॉति अपरिवर्तनीय और सर्वथा शुद्ध ही होता है। ____ पाठको को स्मरण होगा कि श्री कुन्द कुन्दाचार्य कृत समयसार आदि के अनुचित सपादन का विरोध करते हमे लगभग 15 वर्ष हो रहे हैं और अनधिकृत संपादक व प्रकाशक समूह तथा भृष्ट-परंपरा पोषक वैसे ही लोगों द्वारा आज तक अन्याय सम्मत मार्ग ही अपनाया गया है। बावजूद इसके हमे भी उक्त पाप मे घसीटने के लिए पिछले दिनो दि 25 8 95 मे कही सदेश पहुंचाया गया है- "वे (पं. पद्मचन्द्र जी) स्वयं समयसार का संपादन कर प्रकाशित क्यों नहीं करा देते ताकि जो शुद्ध पाठ हैं, वे व्यवस्थित आ सकें।" हम निवेदन कर दें कि परम्परित पूर्वाचार्यों द्वारा संपादित (कृत) आगमों का
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy