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________________ अनेकान्त/13 उपसंहार : श्रावक धर्म के उपर्युक्त विवेचन के पश्चात आज के सन्दर्भ मे उसकी उपादेयता पर विचार करना भी आवश्यक है। धर्म किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं होता है। उसे अपनाकर सभी व्यक्तियों का अभ्युदय हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का अभ्युदय समाज और राष्ट्र का अभ्युदय है, क्योंकि व्यक्ति सदाचारी, निर्दोष निरपराध सुखी और सतुष्ट जीवन व्यतीत कर सकता है । सपूर्ण विश्व की विकट समस्याए हल हो सकती है। प कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अपनी कृति जैन धर्म मे कहा भी है "जैनधर्म में प्रत्येक गृहस्थ के लिए पाच अणुव्रतो का पालन करना आवश्यक बतलाया है। यदि उन्हे सामाजिक और राजनैतिक जीवन का भी आधार बनाकर चला जाए तो विश्व की अनेक मौलिक समस्याएं सरलता से सुलभ हो सकती (3) आज हिसा, भूठ, चोरी, बलात्कार, दुराचार, अनाचार. सचय, अशान्ति बेईमानी आदि से समाज प्रदूषित हो रहा है। इन बुराइयों को दूर करने के लिए श्रावक धर्म का ईमानदारी से पालन करना आवश्यक है। हिसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह का त्याग करने और अहिंसादि का पालन कर जहाँ एक ओर सदाचार का प्रचार होने से विश्व का पर्यावरण शुद्ध बनाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर तामसिक मद्यमास ओर मधु भक्षण का त्याग करने जल छाल कर पीने से स्वस्थ दिमाग का निर्माण हो सकता है और सात्विक भावो का प्रसार किया जा सकता है। (4) निष्कर्ष रूप में यह भी कहा जा सकता है कि जुआ न खेलने से वेश्यागमन और पर स्त्री गमन के त्याग करने से दुराचारिता, अनैतिकता, वासनाओ का विनाश हो सकता है। वहीं दूसरी ओर शिकार न खेलने और जीव दया करने से भी प्रमोद, कारुण्य मध्यस्थ भावना उत्पन्न होती है । परस्पर मे राग-द्वेष की भावना जन्म नही लेती है। दुश्मन के प्रति उसका भाव उत्पन्न होता है कि - "हर चीज नहीं एक मदकज पर, एक रोज इधर, एक रोज उधर । नफरत सेन देखो दुश्मन को शायद वह मुहब्बत कर बैठे।" (5) आज भौतिकता के युग में विश्व मे कृत्रिम आवश्यकताओं के कारण मानव असंतुष्ट और दुख से ग्रस्त है। श्रावक धर्माचरण के द्वारा कृत्रिम इच्छाओ का निरोघकर सुखी हो सकता है। देव दर्शन करने से मन पवित्र हो जाता है और शान्ति का अनुभव होने लगता है। मन मे भौतिक विलासता की वस्तुओ के प्रति वितृष्णा हो जाती है, और अन्त. करण से आवाज आने लगती है "देखकर न फिसलो ऊपर की सफाई पर वर्क चांदी का चढा है गोबर की मिठाई पर।"
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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