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________________ अनेकान्त/५ वचन से मुकरना: पं० बलभद्र जी ने जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग एक लिखा है जो बी०नि०सं० २५०० में छपा । उसमें पंडित जी ने पृष्ठ १३ पं० ५ पर स्वयं लिखा है - "अर्हन्त, अरहंत, अरिहन्त ये शब्द समानार्थक हैं।" क्या तब पंडितजी को "अरहंताणं पद खोटा सिक्का नहीं दिखा, जो अब दिख रहा है ? खेद है । आश्चर्य कि उक्त पंडित जी खारवेल के शिलालेखों को सही मान रहे हैं और उनके उद्धरण भी शौरसैनी की पुष्टि मे दे रहे है, पर फिर भी वे शिलालेख में अकित "अरहंताणं" को खोटा सिक्का बता रहे है, जबकि हम आगमिक सभी शब्दरूपो को मान्य कर रहे पुग्गल की प्रामाणिकता उक्तसंपादक “पुग्गल'' शब्द रूप को भी खोटा सिक्का बता रहे है और उनकी दृष्टि में “पोग्गल'' रूप ही शुद्ध है । इस सम्बध मे हम पहिले लिख चुके है-“यदि पोग्गल'' रूप का निर्माण व्याकरण से हुआ तो पहिले उसका रूप क्या था ? यदि उसका पूर्वरूप "पुग्गल'' था तो वह शब्द का प्राकृतिक, जनसाधारण की बोली का स्वाभाविक रूप है और पोग्गल “रूप से प्राचीन भी ।" फिर भी यदि व्याकरण की जिद है तो उसमे भी तो पुग्गल और पोग्गल दोनो रूप सिद्ध है-दोनो में कोई भी खोटा सिक्का नहीं । देखें--व्याकरण से १ आचार्य हैमचन्द्र ने “ओत् सयोगे" सूत्र की भांति "हस्वः संयोगे" ८/१/८४ भी दिया है और लिखा है कि “दीर्घवर्णस्य ह्रस्वत्वं, संयोगे परतो भवेत्' अर्थात् यदि पर मे सयुक्त अक्षर हो तो पूर्व के दीर्घ वर्ण को ह्रस्व हो जाता है । इसके लिए हैमचन्द्र ने "नीलोत्पलं'' का उदाहरण देकर स्पष्ट कर दिया है कि इसमें “ओ'' के बाद संयुक्त वर्ण होने से पूर्ववर्ती "ओ" को "उ'' होकर "नीलोत्पलं'' का रूप "नीलुप्पलं'' बन गया । यही स्थिति “पुग्गल'' की है यदि वहाँ भी ओ के स्थान पर उ हो गया तो फिर ये उसे क्यो नहीं मानते ? २ प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थ “प्राकृत सर्वस्व' में और त्रिविक्रम के प्राकृत व्याकरण मे भी इसी प्रक्रिया की पुष्टि की गई है । तथाहि “प्राकृतसर्वस्व-सूत्र ४/२ 'युते ह्रस्व' '' युते परे दी? ह्रस्वः स्यात् । सामलांगो । सामलंगो । ३ त्रिविक्रमः प्राकृतव्याकरण'' सूत्र १/२/४० “सयोगे' सयोगे परे पूर्वस्य स्वरम हस्वा भवति । “अधरोष्ठ = अहमष्टो । नीलोप्पलं-नीलुप्पलं । पाठक व्याकरण से पुग्गल और पोग्गल दोनों रूपों की सत्यता को समझ गये होगे । फिर भी हम आगमों मे गृहीत पुग्गल रूप दर्शा दें । तथाहि -
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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