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________________ मुक्ति में करुणा : एक विसंगति सर्व विदित है कि करुणा, अहिंसा धर्म का एक अग है और करुणा को आचार्य कुन्दकुन्द ने मोह का चिन्ह कहा है-मोह की सत्ता को इंगित करने का साधन कहा है। तत्र कर्म -रहित मुक्त आत्माओं में करुणा की पुष्टि करना, उन्हें मोह से आवृत मानना, आसत्र युक्त मानना कहां का न्याय है ? ऐसे में मुक्त और संसारियों में अन्तर ही क्या होगा ? आचार्य कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं 'अट्ठे अजधागहणं, करुणाभावो य तिरिय मणुएसु । विसएसु च पसंगो, मोहस्सेदाणि लिगाणि ॥' प्रवचनसार ८५ पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और तिथंच मनुष्यों के प्रति करुणा का भाव तथा विषयों का प्रसंग ( इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रोति) ये तीनों ही मोह के चिन्ह - मोह के अस्तित्व को इंगित करने वाले हैं । 'अर्थानामययातथ्य प्रतिपत्स्था, तिर्यङ्मनुष्येषु प्रेक्षाsafe कारुण्य बुद्धया च मोहमभोष्ट विषय प्रसनरागमभीष्ट विषयप्रीत्या द्वेषमिति त्रिभिलिङ्ग रधिगम्य झगिति संभवन्नपि त्रिभूमिको अपि मोहो निहन्तव्यः ।' - प्रव० सा० तत्त्वदीपिका ८५ पदार्थों की अययातथ्यरूप प्रतिपत्ति और प्रेक्षकभावयोग्य तियंवों मनुष्यों में करुणाबुद्धि तथा इष्ट विषयों की आसक्ति से राग और अनिष्ट विषयों की अप्रीति से द्वेष उक्त तीनों चिन्हो से मोह की पहिचान कर मोह को (संभावित भी जानकर ) तुरन्त त्याग देना चाहिए । उक्त गाथा की तात्पर्यवृत्ति मे तो आचार्य ने शुद्धामोपलब्धि में करुणा को संयमभाव से विपरीत यानी असंयमभाव तक कह दिया है । तथाहि 'शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षा, संयमाद्विपरीतः करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव:' । वही Jaro वृ० पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली उक्त तथ्य होते हुए भी यदि कोई मुक्त आत्माओं में करुणा के अस्तित्व को स्वीकार करता है तो हम उसके पक्षपाती नहीं और ना ही हम उसे मूल आगम-रक्षक मानने को तैयार हैं । जैसा कि हम पहिले से लिखते रहे हैं कि हम मूल आगम को प्रमाण मानते हैं, भाषान्तरों की प्रामाणिकता में हमारी सहमति नहीं, कुछ भाषान्तर सिद्धान्तघातक भी हो सकते हैं; और कुछ जनसाधारण की समझ से बाहर भो । गत दिनों किसी ने हमारा ध्यान एक पोस्टर की ओर खींचा, जिसे पढ़कर हम अवाक् रह गए । पोस्टर में प्रवचन का विषय छारा था- 'करुणा आत्मा और परमाहमा का भाव है ।' जब हमने छानबीन की तो पता चला कि उक्त शीर्षक का आधार एक श्लोक का भाषारूपान्तर है, जिसने पोस्टर छाने वालों को भरमा दिया। पाठकों की जानकारी के लिए हम उसे यथावत् दे रहे हैं। प्रसंगमुक्त जीव का है। वहां कहा गया है 'जानत पश्यतश्चोत्वं जगतः पुनः । तस्यबन्ध प्रसंगीन, सर्वास्ररिक्षयात् ॥' भाषान्तरकार का अर्थ - 'मुक्तजीव मुक्त होने के बाद भी करा पूर्वक जगत को जानते तथा देखते हैं, पर इससे उनके पंध का प्रसग नहीं आता, क्योंकि उनके सर्व प्रकार काप से क्षय हो चुकता है ।' के विचारना यह है कि क्या उक्त अर्थ पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द और समस्त जैन आगम की मान्यता में ठीक है ? जबकि कुन्दकुन्द करुगा को मोह का चिन्ह मान रहे हैं और समस्त जैन आगम मुक्त आत्मा में कर्मों का सर्वथा अभाव मान रहे है । श्लोक में मुक्ति में सर्व आस्रव क्षय होने का स्पष्ट निर्देश होने से यह भी सिद्ध होता है कि करुणा को मोह का चिन्ह मानने पर 'करुणापूर्वक' अर्थ की संगति नहीं बैठती, क्योंकि जहां करुणा है वहां आस्रव और बम्ध दोनों ही अवश्यंभावी हैं । फलतः ---
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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