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२६, वर्ष ३९, फि०२
अनेकान्त
दोनों ने प्रतिज्ञापत्र लिखकर राजा के हाथ सौप दिए कि जो हारेगा, जीतने बाला उसकी लक्ष्मी ले लेगा। पश्चात् दोनों ने अपने-अपने घर जाकर मैदान मे सारे धन का ढेर लगाया और राजादिकों ने दोनों के धन की परीक्षा कर सुकेतु को विजयपत्र दे दिया। क्योंकि धन भडार उसी के यहां अधिक था। तब जिनदेव बोला कि यथार्थ में मैं जीता हूं। क्योंकि सुकेतु सरीखे सखा की सहाय से आज आनद संसार को बढ़ाने वाले मोह-महारिपु को मैंने जीत लिया है। ऐसा कहकर सबसे क्षमा मांग सुकेतु के रोकने पर भी जिन देव ने ससार-देह-भोगों से विरक्त हो जिनदीक्षा ले ली। तब सुकेतु जिनदेव के पुत्र को उमकी सम्पूर्ण लक्ष्मी देकर दानादिक सत्कार करता हुआ सुख से रहने लगा।
मणिनागदत्त सुकेतु के वैभव को देख नही सकता था, इसलिए उसने एक दिन अपने नागालय में तपश्चरण पूर्वक नागों का आराधन किया। पहले नागदत्त का पुत्र भवदत्त एक अर्जुन नाम के चांडाल को सबोधन करती हुई यक्षी को देखकर कामज्वर से पीड़ित होकर मर गया था और उस नागालय मे उत्पल नाम का देव हुआ था । सो नागदत्त के आराधन से प्रसन्न हो वह बोला-हे नागदत्त, यह कायक्ने श क्यो करता है ?
नागदत्त--तुम्हारा आराधन करता हूं। उत्पल देव बोला-किस लिए? नागदत्त-जिस लक्ष्मी से मैं सुकेतु की लक्ष्मी को जीत सक, वह मुझे तुम्हारे प्रसाद से मिल जावे, इसलिए। उत्पल-तुम पूण्यहीन हो, इमलिए तुम्हें उसकी लक्ष्मी नहीं दे सकता हूँ।
नागदत्त-पुण्यहीन हूं, इसीलिए तो तुम्हारी आराधन करता हूं, नही तो तुम्हारी आराधना का प्रयोजन ही क्या था?
उत्पल- लक्ष्मी को छोड़कर और जो कुछ तुम कहोगे, मो करूगा । नागदत्त-तो, सुकेतु को मार डालो। उत्पल-निर्दोष पुरुष को नहीं मार सकता । उसे कुछ दोष लगाकर अलबत्ता मार डालूंगा । नागदत्त-किसी भी उपाय से मारो, परत मारो। उसके मरने से मैं सतुष्ट हो जाऊगा ।
उत्पन-तो मैं बन्दर का रूप धारण करता है। मुझे सांकल से बाँधकर तुम सुकेतु के निकट ले चलो। वह जब पूछे कि यह बन्दर क्यों न आये? तब तुम करना मैं वन में गया था, वहां मुझे यह बन्दर दिखलाई दिया। देखते ही इसने पूछा कि क्या देग्यते हो? मैन कहा-तू बन्दर होकर मनुष्य सरीखा बोलता है ! इसने कहा-मैं बदर नही हूँ, पुण्यदेवता हु। मेरा स्वभाव उलटा है। मैने कहा-सा कैसा? तब यह बोला-जो मेरा स्वामी होता है, वह जो कुछ आज्ञा करता है, उसे मैं कर लाता है। परन्तु यदि वह कुछ आज्ञा नहीं दे पा है, तो मैं उसे मार डालता हूं। और इसी विरुद्ध स्वभाव से किसी का आश्रय नही लेकर मैं वन मे रहता है। इसकी उक्त आश्चर्यजनक बातें सुनकर इसे आपके पास ले आया हूं, यदि आप मे आज्ञा देते रहने की सामर्थ्य है तो इसे रख लीजिग, नहीं तो मैं इसे छोड़ देता हूं।
उत्पल की बातें सुनकर न गदत्त ने वैमा ही किया और सूकेतु ने उस बन्दर को अपने यहां रख लिया। रखते देर नहीं हुई थी कि वह बोना-स्वामिन, आज्ञा कीजिए। सुकेतु ने कहा-इम नगर के बाहर अनेक जिनमदिरो से युक्त एक रत्नमयी नगर बनाओ। बन्दर ने कहा मुझे छोड़ दीजिए, अभी जाकर बनाता हूं। सुकेतु ने उसे छोड़ दिया। तब उसने बाहर जाकर थोडे ही समय में मनुष्यो को कौतुक उत्पन्न करने वाला वैसा ही नगर तैयार कर दिया । और लौट कर फिर आज्ञा मागी। तब सूकेतु ऐसा कहकर कि 'मैं राजा के समीप जाकर आता है, तब तक त ठहर' राजा के पास गया, और बाला-देव, मैंने एक नगर बनवाया है, वहाँ आप राज्य कीजिए। राजा ने कहातुम्हारे पुण्य के उदय से वह नगर बना है, मो अब वहां का राज्य तुम्ही करो। यह सुनकर सुकेतु राजा का आभार
(शेष आवरण पृ० ३ पर)