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________________ जायकुमार चरिउ में प्रतिपादित धर्मोपदेश माना है। दान के प्रसंग में पात्र, अपात्र, और कुपात्र का उन्होंने मनियों को उत्तम पात्र कहा है दूसरी ओर यह भी विश्लेषण करते हुए प्रस्तुत काव्य में बताया गया कि जो विचारा कि यदि दीन-हीन लोगों को सहयोग नहीं दिया झूठे शास्त्रों में, कुत्सित आचारों तथा तपस्वियों मे अनुरक्त गया तो वे सदैव दुःखी रहेंगे । अतः उन्होंने अपने उपदेशों होता है वह कुपात्र है और जो सम्यकदर्शन तथा पवित्र में ऐसे दीन-हीन, लगड़े लूले, गूगे, बहरे, अन्धे, रोगी, व्रतों से रहित है वह अपात्र है। और दुःखी लोगों को करुणा का पात्र कहा। उन्होंने कहा पात्र उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार कि ये करुणा के पात्र है, किन्तु गुणागार मुनीश्वर करुणा के है। इनमें शुद्ध रत्नत्रय रूप मुनिव्रतधारी उत्तम पात्र, के पात्र नहीं है। उन्हें तो परम भक्तिपूर्वक ही दाम देना श्रावक के चारित्र का धारी मध्यम पात्र और जो चाहिये। कुष्टियों के गुणो, का कीर्तन, तथा लौकिक और वैदिक मूढ़ताओ का त्याग कर शका, काँक्षा व जुगुप्सा आदि से आगे उन्होने यह भी कहा कि जो लोग पापियों को रहित सम्यक्त्व को धारण करता है किन्तु दोनो प्रकार के । दान देते है वे पापो को बढ़ाते है। पापियो को दान देकर सयम रहित होता है वह अधम पात्र बताया गया है। उनका पोषण करना कोश को सुखाना है। वह इस भव में तथा परभव मे दोष ही उत्पन्न करता है। आखेट दान पात्र के अनुसार फलित होता है । अपात्र को करना गहस्थ धर्म नही है, वह घोर पाप है अतः गृहस्थ दिया हुआ दान शून्य अथवा फल रहित जाता है तथा जन ऐसे पापो से बचे । कुपात्र को दिये गए दान का फल बुरा ही होता है। तीनो प्रकार के पात्रों को दान देने से भूतल मे लोग तीन प्रकार प्रनगार धर्म के भोग प्राप्त करते है। यह धर्म का दूसरा भेद है । इस धर्म के धारी मुनीश्वर होते है। वे काम के राग-रंग से दूर हटकर परिग्रह से दान-विधि मुक्त हो पर्वत की कन्दराओ मे रहते है। तपरूपी लक्ष्मी धर्मोपदेशो मे अचार्यों ने दान के सम्बन्ध में अपने से समद्ध वे पथ, नगर या देश से बधते नही। मन का विचार व्यक्त करते हुए यह भी कहा है कि दान तभी मर्दन कर शत्र, मित्र, धन और तृण मे समता भाव रखते सार्थक होता है जब वह विधिपूर्वक दिया जाता है । विधि है, शरीर से ममत्व नही रखते, पुत्र और कलत्र से भी के अन्तर्गत उन्होने कहा कि उत्तम पात्र को दान नवधा स्नेह छोड़ देते है। तपस्यारूपी अग्नि में तप्त वे विकार भक्ति से युक्त होकर ही देना चाहिये। उत्तम पात्रो को रहित प्राप्त भोजन मे ही प्रवृत्त होते है। उनके शरीर में पड़गाह कर उन्हें उच्चासन देवें, उनका पाद प्रक्षालन चर्म और अस्थि मात्र ही शेष रहती है। वे केश लोच करें। प्रक्षालित जल की वन्दनां कर, अर्चना करें और करते है, नग्न रहकर शिला या भूमि पर शयन करते हैं। सिर झुका कर प्रणाम करे । तदनन्तर मन-वचन-काय की शरीर मल से लिप्त हो जाने पर भी वे शरीर से निलिष्त शुद्धि सहित निर्लोभ भाव से आहार देवें। विधि का रहते हैं, अधखले नेत्र रख कर नासाग्र दृष्टि से ध्यानस्थ महत्व प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि विधि के रहते है। उनका अन्तरग शुद्ध होता है, जैसे कछआ अंगों अभाव मे दिया गया आहार अरण्यरोदन के समान को संकोच कर लेता है ऐसे ही वे इन्द्रिय और मन का निष्फल होता है। सकोच कर लेते है। उपदेशकों ने समझाया कि यही है आचार्यों ने यह भी लिखा है कि दया भाव से अनाथो अनगार धर्म। उन्होने कहा कि इसी धर्म के द्वारा ही दीनों और निर्धनों को भोजन, वस्त्र, आभूषण, गाय-भैस, मनुष्य कुकृत्यो का नाश कर परम लक्ष्मी के धारी श्रीधर भूमि और भवन रूपी धन दिया जा सकता है। (नारायण) हलधर, (बलदेव) तथा भरत सदृश चक्रवर्ती दान से सम्बन्धित पात्रो के सम्बन्ध मे जहां एक ओर देवेन्द्र और जिनेन्द्र होता है।
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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