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________________ जन विधानों में शोध एक सर्वेक्षण वर्ष मिल रही है। इनके लिये उपरोक्त कार्य में प्रायः पांच हजार रुपये प्रति वर्ष खर्च होने का अनुमान है। नव स्थापित बी० एल० इन्स्टीट्यूट, दिल्ली यह कार्यक्रम नियमित रूप से अपनायें, तो उसकी महत्ता और उपयोगिता ही बढ़ेगी । (द) शोध-नाभिकायें भी गोध-संचरण करती है । इस दिशा में डा० जैन का कार्य उल्लेखनीय है। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय या अन्तरर्राष्ट्रीय सम्मेलनो के अवसर पर जैन विद्याओं में कृत एव क्रियमाण शोध की नाभिकाये संकलित कर अनेक पत्रिकाओं के सामान्य या विशेषाको मे प्रकाशित की है। इनमें एक सकलन १९७३ मे 'महावीर और उनकी विरासत' मे भी प्रकाशित हुआ है। इसका आधार विभिन्न विश्वविद्यालय रहे हैं। इसमें आठ प्रान्तो के छब्बीस विश्वविद्यालयो की २०४ शोधो का विवरण था । जैन ने एक संगोष्ठी में इसको विषयवार वर्गीकृत कर समीक्षा प्रकाशित की है एवं युगानुरूप शोध के अज्ञात का उपेक्षित क्षेत्रो मे अनुसन्धान का सुझाव दिया है । वर्ष १९८३ में उन्होंने पुनः पूर्व-परंपरा के अनुकरण । में एक अन्य शोध नाभिका प्रकाशित की है जब कि काशी से ही एक अन्य शोध नाभिका पुस्तक विषयवार क्रम के आधार पर प्रकाशित हुई है। डा. जैन की नाभिका 'अ' श्रमण-संकाय पत्रिका के अग के रूप में है तथा हिन्दीअंग्रेजी में है। पुस्तक नाभिका 'ब' अग्रेजी में है और उसमे बोद्ध शोध-नामिका भी है। नाभिका 'अ' मे कृत और क्रियमाण शोध-विवरण है जब कि नाभिका 'व' केवल कृत शोध को ही लक्ष्य में रखकर तैयार की गई है। जैन विद्या शोध की दृष्टि से नाभिका 'अ' अधिक उपयोगी दिखती है। फिर भी, दोनों ही बहुमोली है। इसमे उपाधि निरपेक्ष शोध का विवरण नहीं है और न ही पूर्वोक्त विषयवार गुणात्मक एवं परिमाणात्मक समीक्षा का उल्लेख है। यदि दोनों ही नाभिकाओं को कृतशोध के आधार पर आंका जावे, तो आंकड़ों में अन्तर दिखता है। उदाहरणार्थ, नाभिका 'अ' में इस श्रेणी में जहां २४१ नाम है वहीं 'ब' में कुल ३२४ नाम ही है (संभवत: to यह कुछ पहले प्रकाशित हुई होगी। नाचिका 'म' अपूर्ण भी लगती है । उसमें डा० रायनाडे (बनारस), डा० एस० के० जैन (कुरुक्षेत्र) तथा डा० उप जैन (जबलपुर) आदि के नाम नहीं हैं। पंजीकृतो में भी रीवा की सा० प्रियदर्शना श्री सा० सुदर्शना श्री व श्रीमती सरला त्रिपाठी, काशी के कमलेश जैन तथा डा० सी० जैन तथा संस्कृत विश्वविद्यालय की प्रकाशित सूची के नाम नहीं है। स्वविवेक का ऐसा उपयोग समझ में नहीं आया। । अनेक नाम । विषयो मे पुनरावर्तन भी है। यदि किचित सावधानी बरती जाती और कुछ प्रयत्न किया जाता, तो इसकी गुणात्मकता और अच्छी होती । यद्यपि यह १६७३ की नाभिका की तुलना में पर्याप्त प्रगत है, इसमे १५ प्रान्तों के ४९ विश्वविद्यालयों के ४२१ शोधों का विवरण है, फिर भी इसके आंकड़े शताधिक विश्वविद्यालयों के आधार पर अपर्याप्त ही माने जायेंगे। इसमें आठ प्रदेशों एवं आठ केन्द्र शासित क्षेत्रों के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं है। इसमे प्रकाशित शोध प्रबंधों की सूचना तो है, पर प्रकाशन या प्राप्ति स्थान का उल्लेख नहीं है। मूल्य भी नहीं है। शोध निर्देशक के नाम भी नहीं है। ये तथ्य दोनों ही नामिकाओं में लागू होते हैं। यह उत्तम होगा यदि भविष्य में इन बातों पर ध्यान रख कर प्रकाशन किया जावे । जैन विद्या शोध को प्रगति का विश्लेषण 1 उपरोक्त अनेक अपूर्णताओं के बावजूद भी दस वर्षों के अंतराल मे प्रकाशित नाभिकाओं के अध्ययन में भारत मे जैन विद्या शोध की वर्तमान स्थिति, प्रगति का वेग तथ्य दिशाओं की विविधतायो मे वृद्धि का आभास होता है। सारणी १, २३ मे दोनो नामिकाओं (अ) पर । आधारित तुलनात्मक आंकड़े दिये जा रहे हैं। इनमें नाभिका 'व' के विषयों का संक्षेपण किया गया है। इसके प्रायः आधे विषय ललित साहित्य के अन्तर्गत आते हैं। इनके विश्लेषण से हम वर्तमान स्थिति के साथ आगामी वर्णों के लिये शोध-दिशाएं आकलित कर जैन विद्याओं को महत्ता को और भी प्रकाशित कर सकते हैं। ।
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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